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________________ धन्य-चरित्र/412 सकती हैं? विवाह आदि महोत्सव तो अनन्त बार किये, पर फिर भी तृप्ति नहीं हुई। पर इस भव में आप परम सुख का एकमात्र हेतु चारित्र का उत्सव क्यों नहीं करतीं? संसार में जो सम्बन्ध धर्म आराधना के कार्य में सहायक होते हैं, वे सफल हैं। अन्य तो विडम्बना-रूप ही जानने चाहिए। अतः घर जाकर मन की प्रसन्नतापूर्वक पुत्र के मनोरथ पूर्ण करें। जिससे आपका भव-भ्रमण भी अल्प हो। मैंने तो चारित्र लेने का निश्चय कर लिया है। जगत में प्रलय आ जाने पर भी उसे अन्यथा करना शक्य नहीं है। संसार-जाल में गिराने को तैयार आपके स्नेह-गर्भित दीन-वचनों को सुनकर मैं चलित होनेवाला नहीं हूँ। संसार के स्वार्थ में निष्ठा रखनेवाले विविध रचना करके विलाप करते हैं। पर मैं वैसा मूर्ख नहीं हूँ कि धतूरे के बीज को बोने के लिए उगे हुए कल्पवृक्ष को उखाड़ दूँ। वे दिन तो गये, जब आप जैसों के स्नेह-वचनों के द्वारा परम आनन्दित हुआ करता था। अब तो श्रीवीर प्रभु-चरण की शरण रूप है, स्वप्न में भी अन्य कोई विकल्प नहीं है। अतः आप शीघ्र ही घर जायें। पुत्र के संयम ग्रहण करने में विघ्नकारी न बनें।" इस प्रकार धन्य की दृढ़ता के सूचक वचन सुनकर निराशाभाव को प्राप्त हुई भद्रा घर लौट आयी। तब धन्य हर्षित हृदय से महान आडम्बरपूर्वक व्रत ग्रहण करने के लिए रवाना हुआ। तब जैसे पुण्य का लक्ष्मी, सूर्य का किरणे एवं सत्त्व का सिद्धियाँ अनुसरण करती हैं, वैसे ही धन्य की सभी पतिव्रता प्रियाओं ने अपनी-अपनी विभूति के साथ सुखासन पर बैठे हुए धन्य का अनुसरण किया। __ अचानक इस वार्ता का श्रवणकर अत्यधिक विस्मय युक्त मन के द्वारा अभय आदि ने सिर को हिला-हिलाकर धन्य की प्रशंसा की। अभय तथा अन्य बुद्धिधनियों ने श्रेणिक को कहा-"श्रीमान! किये हुए व्रत का उद्यम अनिवार्य है, अतः दीक्षा के सहायक रूप आपको भी बनना चाहिए।" तब राजा ने पुत्री के समाचार जानने के लिए पूछा-“सोमश्री प्रमुख उन नारियों का क्या हुआ?" अभय ने कहा-"वे सभी भी धन्य का ही अनुगमन करेंगी।" यह सुनकर विस्मित होते हुए श्रेणिक ने कहा - "धन्य है यह सम्बन्ध! सफल है इनका सम्बन्ध! जो महिला वृन्द मोक्ष मार्ग पर विघ्नकारक होता है, वही सहायकारी हो गया-यह परम आश्चर्य का विषय है।" उधर धन्य ने महान विभूति के साथ दीनादि को अस्खलित दान देकर, सिंह की तरह उत्साहपूर्वक इन्द्रियों के समूह को वश में किये हुए प्रियाओं से युक्त होकर निकला। मार्ग में सभी नागरिक सहसा इस दुष्कर कार्य को देखकर विस्मित मन से स्तुति करने लगे-"अहो! इसका वैराग्य-रंग! इसकी निःसंगता
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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