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________________ धन्य-चरित्र/410 अद्भुत राज-महल को जीतनेवाले, देवभवन का भ्रम दिखानेवाले सात मंजिले भव्य आठ भवन थे। आठ पत्नियाँ थी। प्रत्येक पत्नी की नेश्राय में एक-एक गोकुल होने से कुल आठ गोकुल थे। खजाने में, व्यापार–क्रिया में ब्याज में, वस्त्राभरण-पात्र आदि समस्त घर में रहे हुए अधिकरण आदि में प्रत्येक में अलग-अलग 56-56 करोड़ स्वर्ण लगा हुआ था। आठों पत्नियों के अपनी-अपनी नेश्राय में एक-एक करोड़ स्वर्ण था। इस प्रकार कुल आठ करोड़ स्वर्ण था। धान्य के कोष्ठागार एक लाख की संख्या में थे। उनके अनेक ग्रामों में दीन-हीन दुःखी लोगों के उद्धार के लिए धर्मशालाएँ चलती थी। मन-इच्छित भोग -संभोग आदि इन्द्रिय सुखों, यश-कीर्ति आदि तथा सभी एहिक वांछित सुखों को देनेवाला चिन्तामणि रत्न भी था। इसी प्रकार अन्यान्य मूल्य, विविध गुण-स्वभावादि से युक्त रत्नौषधि आदि करोड़ों वस्तुएँ अनेक देशान्तरों से आये हुए, राजा आदि को भी दुर्लभतर मणि-रसायन आदि अगणित थे। प्रतिदिन प्रतिमास प्रतिवर्ष सार्थवाह, महेभ्य, सामन्त, राजा आदि प्रीतिपूर्वक स्वदेश तथा परदेश से संग्रहित करके ऐसी-ऐसी वस्तुएँ सब धन्य को लाकर देते थे, जो अन्यों को खोजने पर भी नहीं मिलती थी। स्वजन, मित्रादि की सम्पदा भी वैसी ही थी। यह सभी उत्कृष्ट पुण्योदय का लक्षण था। इस प्रकार की महा-ऋद्धि के विस्तार की सत्त्वशाली धन्य तृण की तरह अवगणना करके व्रत ग्रहण के लिए उद्यत हो गया, क्योंकि बलशाली पुरुष ही उत्तम अर्थ को साधने के जिए देर नहीं करते। फिर रत्न-त्रय के अर्थ को साधने तथा विघ्न का नाश करने के लिए सभी तीर्थों में धन्य ने अष्टाह्निका महोत्सव शुरू करवाया। प्रभूत धन सात क्षेत्रों में बोया। कितना ही धन दीन-हीनों के उद्धार के लिए पुण्यकार्य में लगाया। कितना ही धन नित्य सेवा करनेवालों को दिया, जिससे आजीवन उनको धन की कमी न हो और न किसी अन्य की सेवा करनी पड़े। कितना ही धन अखण्ड यश की स्थापना के लिए शासन की उन्नति के लिए दिया। कितना ही धन याचकों को दिया। कितना ही धन राजा को उपहार देने में, अवसर आने पर व्यय की प्रवृत्ति को दिखाने के लिए, प्रमादी जनों में जागृति लाने के लिए व्यय किया। इस प्रकार बहुत सारा धन धर्म-कर्म-पुण्यकार्य- चित्तकर्म-यशःकर्म आदि में खर्च किया, फिर भी बच गया, तो यथायोग्य बांटकर धन्य निश्चिन्त हो गया। तब सुभद्रा ने भी अपना आशय माता से कहा। माता बोली-“पुत्री! अभी-अभी तो पुत्र वियोग की वार्ता से मेरा अन्तःकरण जल रहा है, पुनः क्या तुम भी व्रत ग्रहण करने के लिए तैयार हो गयी हो? जले पर नमक छिड़कने के तुल्य तुम मुझे दुःख पर दुःख क्यों देती हो? तुम दोनों के चले जाने पर मेरा सहारा कौन होगा? सहसा तुम्हें भी क्या हो गया?" पुत्री ने कहा-"माता! हम आठों बहिनों ने निश्चय किया है कि हम अवश्य ही संयम ग्रहण करेंगी। इस जगत का विलय हो जाने पर भी इस प्रतिज्ञा को हम
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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