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________________ धन्य-चरित्र/408 इस प्रकार के सुभद्रा के वचन सुनकर कुछ हँसते हुए साहस के सागर धन्य ने कहा-“प्रिये! जो तुमने पिता के घर की शून्यता रूप दुःख कहा, वह तो सत्य है, क्योंकि पिता के घर की सुख-वार्ता सुनकर स्त्रियों का दिल उल्लसित होता है। स्त्रियाँ हमेशा पिता के घर का शुभ-चिन्तन करती हैं, प्रतिदिन आशीर्वाद देती हैं, यह तो युक्त ही है। पर तुमने जो कहा कि प्रतिदिन एक-एक स्त्री का त्याग करता है-यह सुनकर तो मुझे तुम्हारा भाई महान कायर प्रतीत होता है। प्रिय! कायर ही धीरवान पुरुष द्वारा की गयी वार्ता के श्रवण से उल्लसित होता है, धैर्यवान के द्वारा आचरित को करने के लिए इच्छा करता है। उसे आदरने के लिए तैयार होता है, परन्तु बाद में अल्पसत्त्व हो जाने से मन्द हो जाता है। अन्यथा श्रीमद् वीर वचनामृत के सिंचन से उत्पन्न व्रत ग्रहण करने के परिणाम रूप अंकुरवाला वह कैसे मन्द पड़े? धैर्यवान ने जो कर्त्तव्य निर्धारित कर लिया है, वह करना ही चाहिए, प्राणांत आने पर भी वे उसे नहीं छोड़ते। हे प्रिय! मनुष्यों के प्राण सबसे पहले निरालस्य-वाले होते है, परन्तु बाद में निःसत्त्वों के प्राण विलम्ब करने से कार्य-सिद्धि को प्राप्त नहीं करवाते। उनकी अपेक्षा तात्त्विक लोगों के प्राण बिना विलम्ब के कार्य को साधते हुए विशेषता को प्राप्त होते है, वे जितनी जल्दी जैसा होता है, वैसा ही करते हैं, देर नहीं करते।" इस प्रकार अपने पति धन्य की गर्व-युक्त वाणी को सुनकर शालिभद्र के वैराग्य से विस्मित होते हुए सभी धन्य से कहने लगीं-“हे प्राणेश! बलशाली व्यक्ति अपनी भुजाओं से समुद्र को तैर सकता है, पर पूर्ण व सुन्दर ध्यानवाले पुरुष के द्वारा भी यह जिनाज्ञा के अनुरूप तप का पालन करना दुष्कर है, क्योंकि सर्वाक्षर सन्निपाती सर्वज्ञ के समान चौदह पूर्वधारी भी पतित होते हुए सुने जाते हैं, तब अन्य की तो बात ही क्या? इस जगत में दुःखित सांसारिक लोग आजीविका आदि दुःख से सन्तप्त होते हुए मोक्ष सुख के एकमात्र कारण रूप तप-संयम ही है-इस प्रकार कुछ-कुछ जानते हुए भी कितने लोग चारित्र को ग्रहण करते हैं? पर इसने तो मनुष्य जन्म में भी देवताओं सम्बन्धी भोग का विलास किया है। जो रत्नजटित स्वर्णाभूषण आदि चक्रवर्ती के घर में तथा तीन जगत के नाथ श्री अरिहन्तों के घर में भी बासी पुष्पों की माला के समान निर्माल्यता को प्राप्त नहीं होते, उन आभूषणों को इसके घर में नित्य मैल की तरह अवगणना करके फेंक दिया जाता है, फिर उनकी कोई खबर भी नहीं लेता। उन सुवर्ण, रत्न, देवदूष्य आदि को श्लेश्म की तरह घृणा की दृष्टि से देखा जाता है। उद्यमवान रत्नों के व्यापारी पुरुषों द्वारा जगत में भ्रमण करते हुए जो एक भी रत्न दृष्टि पथ पर न आया, वैसे रत्नों का समूह इसके पाँवों पर लौटता है। वैसे रत्नों से ही इसके घर का भूमितल बँधा हुआ है। जिसकी 32 पत्नियाँ मेनका, रम्भा, तिलोत्तमा के रूप-सैन्दर्य को तिरस्कृत करती हैं, पति के वचनों के अनुकूल ही प्रवृत्ति करनेवाली हैं, स्त्रियों की 64 कलाओं से युक्त हैं,
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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