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________________ धन्य-चरित्र/406 विचार कर माँ शालिभद्र से बोली-"वत्स! अगर तुम चारित्र ग्रहण करना ही चाहते हो, तो तुम जल्दी मत करो। कुछ दिन तक प्रतीक्षा करो। थोड़ा-थोड़ा त्याग करो। प्रतिदिन एक-एक नारी का त्याग करो, जिससे अपनी शक्ति की परीक्षा हो सके फिर धर्म-ध्यान में मन लगाओ, जिससे अखण्ड संयम का पालन कर सको।" ___माता के इन वचनों को सुनकर शालिभद्र विचार करने लगा-"स्नेहाविष्ट माता सहसा तो आज्ञा देगी नहीं और माँ की आज्ञा के बिना कोई भी चारित्र प्रदान नहीं करेगा। अतः जो माता कहती है कि दस दिन चारित्र को तोलो, तो माता के वचन स्वीकार करने से माँ भी प्रसन्न हो जायेगी। मैंने जो मन में निर्धारित किया, वह अभी तो होनेवाला नहीं है। अतः माता के वचनों का पालन करना ही युक्त है। अवसर आने पर मन-इच्छित को साकार रूप दूंगा।" इस प्रकार विचार करके माता को नमन करके महल के ऊपर वाले वासगृह में चढ़ गया। माता भी प्रसन्न हो गयी कि इस सुपुत्र ने मेरे वचन स्वीकार कर लिये, मेरी आज्ञा का लोप नहीं किया। उधर जिनवाणी से परिकर्मित मतिवाले शालिभद्र ने संसार-स्वरूप की चिन्ता से युक्त होकर शेष अहोरात्रि व्यतीत की। दूसरे दिन प्रभात होने पर पहली पत्नी को आज्ञा दी "आज से तुम अधोभूमि में रहने चली जाओ। मेरी बिना आज्ञा के यहाँ मत आना। यह सुनकर "कुलीन स्त्रियों को पति के वचनों का उल्लंघन नहीं करना चाहिए" इस कारण से दुःखपूर्वक वह अधोभूमि में जाकर रहने लगी एवं सोचने लगी कि "हा! मेरे स्वामी ने यह क्या किया? मुझ निरपराध का त्याग क्यों किया? क्या मुझे सबसे पहले पाणिग्रहण किया था? लज्जा और विनय से ढ़की मैं कुछ भी प्रश्न करने में समर्थ न हो पायी? अब क्या होगा? मेरे दिन-रात कैसे बीतेंगे? सबसे आगे मुझे मेरे पति ने क्षण भर में गणना से बाहर कर दिया। अतः अनुमान से जाना जाता है। कि क्रम से सभी की यही गति होनेवाली है। अगर कभी अन्यों का त्याग नहीं होगा, तो मेरे ही दुष्कर्मों का उदय है। मैं ही सभी दुर्भागिनियों की सिरमौर हूँ।" इस प्रकार विकल्प-कल्पना की कल्लोलों से कष्ट में गिरी हुई मुख के निःश्वास से मलिन हुए दर्पण की तरह स्याह मुखवाली होकर अत्यन्त कष्टपूर्वक दिन व रात्रि व्यतीत की। तीसरे दिन प्रभात होने पर पुनः दूसरी पत्नी को आज्ञा कि तुम भी आज से त्यक्त हो, अतः प्रथम पत्नी के पास जाकर रहो। तब वह भी उदास मुख से उसके पास चली गयी। प्रथम पत्नी भी उसे आते देखकर थोड़ा मुस्कराकर उठकर सम्मुख जाकर हाथ से ताली बजाकर कहने लगी-“सखी! आओ! आओ। तुम्हें भी मेरे जैसी गति प्राप्त हो गयी है-ऐसा दिखाई देता है। तुम चिन्ता मत करो। सभी की यही गति होनेवाली है, ऐसा दिखाई देता है। तो फिर हम दोनों की चिन्ता निरर्थक है। "पाँच
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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