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________________ धन्य-चरित्र/404 वन्दनीय होते हैं।" तब माता ने कहा-"बेटा! तुम्हारा शरीर अति कोमल है। इस शरीर से संयम-निर्वाह नहीं हो सकता। चारित्र तो वज्र के समान कठिन है। जो अति अति मजबूत शरीरवाले हैं, उनके द्वारा भी भागवती दीक्षा का पालन दुष्कर है, तो तुम कैसे निर्वाह कर पाओगे?" शालिभ्रद ने कहा-"मेरे से भी ज्यादा कोमल राजा एकमात्र राज्य को छोड़कर दुष्कर चारित्र लेकर श्रीवीर प्रभु के चरण कमल की उपासना कर रहे हैं।" माता ने कहा-"वत्स! मैंने तो तुम्हारे शरीर की दृढ़ता तभी जान ली थी, जब महाराज हमारे घर पधारे थे। तुम्हें बहुमानपूर्वक अपनी गोद में बिठाया था। उस समय राजा ने स्नेहपूर्वक तुम्हारी पीठ पर हाथ फेरा, तब तुम्हारे शरीर से पहाड़ी झरने के उद्गार की तरह पसीने की धारा बह निकली थी। मैंने ही विनति करके तुम्हें उनसे छुड़वाया था। ऐसे कोमल शरीरवाले तुम जिनदीक्षा के लिए उत्सुक हो, यह किसके लिए हास्यास्पद नहीं होगा? खटमल गुड़ की गुणी को उठाने की इच्छा करे-यह कैसे संभव है?" तब शालिभद्र ने कहा-"माता! बेइन्द्रियादि जीव अत्यन्त कोमल होने पर भी पुरुषार्थ से ही सघन लकड़ी को खोखला बना देते हैं और उसके रस को सोख लेते हैं। अतः कठिनता या कोमलता का कार्य के साधने व न साधने में एकान्त रूप से नित्यत्व नहीं है। बल्कि तीव्र श्रद्धा के साथ किये गये उद्यम से सभी कार्य सिद्ध होते हैं। और भी, परम सुख के आस्वाद में निमग्न, सुख के आस्वाद में एकमात्र रसिक, छत्र की छाया से आच्छन्न शरीरवाले भी अति कोमल सिंहासन पर बैठे हुए, जिनके आगे गायक-वृन्द द्वारा आतोद्य से उत्पन्न मधुर राग की मूर्च्छना से मूर्छित हृदयवाले राजा होते हैं, वे भूमि पर पाँव भी नहीं रखते। घर के अन्दर घूमते हुए बहुत से सेवकों द्वारा "खमा-खमा" शब्द से लालित किये जाते हुए राज्य सुखों का भोग करते हैं। प्रत्येक ऋतु के अनुकूल प्रत्येक सुख का भोग करते हुए बीते हुए काल को भी नहीं जान पाते। पर सभी सुखों को छोड़कर, भारी लौह-कवच को धारण करके शिर पर वज-कण्टक से आकीर्ण लोहमय मुकुट धारण करके, अत्यधिक वेगवाले अश्व पर सवार होकर, तलवार, खेटक, तोमर, धनुष-बाण आदि 36 प्रकार के आयुधों के साथ तैयार कर, शूरता के प्रकर्ष सेना में सबसे आगे होकर, ग्रीष्मकाल के सूर्य के अति प्रचण्ड ताप से तप्त, छाया व जल से वर्जित रणभूमि में मरण-भय को त्यागकर, चक्र-भ्रमण, वेग से गमन आदि अनेक घुड़सवारियाँ करते हुए वज्र से भी कठोर हृदयी बन, अनेक धनुष-बाण आदि की कला के द्वारा शत्रुओं का हनन करते हुए, शत्रु के द्वारा किये गये घातों से छलपूर्वक बचते हुए शत्रुओं को जीतकर जय को प्राप्त करते हैं। इस प्रकार मेरे जैसे संसारी भी पूर्व मूर्खता से "संसार में भोग ही तत्त्व के रूप हैं।'' इस प्रकार मानते हुए पूर्वकृत पुण्यों के द्वारा प्राप्त भोगों को भोगते हुए
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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