SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 394
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धन्य-चरित्र/386 नाम धनदत्त रखा गया। उस पुत्र का लालन-पालन करते हुए वह आठ-वर्ष का हो गया। तब उसे विद्याएँ सिखायी जाने लगीं। प्रायः करके उसने बहुत सारी विद्याएँ सीख लीं। इस प्रकार कितना ही समय बीत जाने पर उसी नगरी में श्री अजितसिंह सूरि पधारे। लोगों के द्वारा ज्ञात होने पर हम दम्पति पुत्र सहित वन्दना करने गये। पाँच अभिगमपूर्वक वन्दना करके वहाँ बैठ गये। तब अमृत-वर्षिणी देशना सुनकर वैराव्य रंग से आप्लावित होकर हम दोनों ने गृहस्थी का त्यागकर उन आचार्य के पास पुत्र-सहित दीक्षा ग्रहण कर ली। ग्रहण व आसेवन शिक्षा ग्रहण करके मैंने गुरु-कृपा से बुद्धि के अनुसार अनेक शास्त्रों के हार्द प्राप्त किये। फिर गुरु के पास तपश्चर्या करते हुए ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से अवधिज्ञान प्राप्त किया। गुरु ने कृपा करके मुझे आचार्य पद प्रदान किया। अनेक साधुओं का समुदाय भी दिया। इस प्रकार भूमण्डल पर विचरण करते हुए मैं यहाँ आया हूँ। वह तुम्हारी माता पोत के भग्न हो जाने पर जल में डूब गयी और आर्त्त-ध्यान में मरकर मछली बनी। पुनः आत ध्यान में मरकर इस बन्दरी के रूप में प्रकट हुई है, क्योंकि आर्त ध्यान से जीव तिर्यंच गति में, रौद्र ध्यान से नरक गति में, धर्म ध्यानपूर्वक देवगति में तथा शुक्ल ध्यानपूर्वक मोक्ष गति में जाता है। शुभ-आर्त ध्यान से मध्यम परिणाम-युक्त जीव मनुष्यगति में जाता है। फिर यहाँ आकर बैठी, तो मुझे देखकर पूर्वभव के स्नेहोदय से चारों ओर घूम रही है और नृत्य कर रही है।" इस प्रकार गुरु-वचनों को सुनकर धनवती बन्दरी को देखकर बार-बार रोने लगी-"हा! माता! तुम्हारा यह क्या हाल हुआ?" इस प्रकार बोलती हुई नयनों से अश्रु-धारा बहाने लगी। गुरु ने कहा-“हे पुत्री! कर्मों की गति विचित्र है। यह संसार-सागर दुस्तर है, क्योंकि __ न सा जाई न सा जोणी न तं ठाणं न तं कुलं। न जाया न मुआ जत्थ, सव्वे जीवा अणंतसो ।।२।। ऐसी कोई जाति नहीं, कोई योनि नहीं, कोई स्थान नहीं, कोई कुल नहीं, जहाँ सभी जीवों ने अनन्तबार जन्म-मरण न किया हो। __ घणकम्मपासबद्धो, भवनयरचउप्पहेसु, विविहाओ। पावइ विडंबणाओ, जीवो को इत्थ सरणं मे ?||२|| निबिड़ कर्मों के पाश में बंधा हुआ जीव भव रूपी नगर के चतुष्पथ पर विविध विडम्बना को प्राप्त करता है। वहाँ कौन उसकी शरण है? अतः धर्म ही संसार के दुःखों से उद्धार करने में समर्थ है, अन्य नहीं। क्योंकि-धर्म से ही जन्म, कुल आदि श्रेष्ठ रूप में प्राप्त होते हैं-आदि। ___ अतः दुर्लभ मनुष्य भव को प्राप्त करके जो श्री जिनधर्म की आराधना तीन प्रकार की शुद्धि के साथ करता है, वह शीघ्र ही जन्म-मरणादि संसारिक दुःखों का
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy