SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 367
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धन्य-चरित्र/359 प्रियशिर रज रेडें वेशपाडे, खभेडे, विलगें जेह के. तेहगें नाम फेडे ।।1।। मध्यमजनों में भी यह अधम है, इसे धन से मतलब है, धनहीन होने पर तरुणों को भी निकाल देती है, धन होने पर एक से एक भौंडे पुरुष भी उसे अतिप्रिय होते हैं। उसका मस्तक चूमती है, उसकी रज शिर से लगाती है, उसका वेश संवारती है। पर धन से विलग होते ही उसे निकाल बाहर करती है। कः कोपः का प्रीतिर्नट-विटपुरुषहतासु वेश्यासु रजकशिलातलसदृशं, चासां वदनं च जघनं च।।1।। नट व कामी पुरुषों द्वारा हत की गयी वेश्याओं पर क्या क्रोध और क्या प्रीति? धोबी के शिला-तल सदृश जिसके मुख और तन है। इस प्रकार चिंतन करता हुआ बार-बार स्वयं की निंदा करने लगा। जैस-मैं शास्त्रों का ज्ञाता होते हुए भी मूर्ख व जड़ की तरह इसके द्वारा ठगा गया। इस पापिनी के लिए वृद्ध व सेवा करने योग्य माता-पिता आदि की सेवा भी नहीं की। निर्लज्ज होकर मैंने लोक-व्यवहार का भी त्याग कर दिया। केवल मात्र अपयश का ही भागी बना। अब कैसे साहूकारों के मध्य अपना मुख दिखा पाऊँगा?" इस प्रकार अपनी अज्ञान-दशा का बार-बार स्मरण करते हुए मार्ग में श्रीपति के घर को पूछते हुए घर आ गया। घर को जर्जर व गिरा हुआ देखता है, तब तक तो पड़ोसी के मुख से माता-पिता की मृत्यु के समाचार सुनकर अत्यन्त दुखित होता हुआ उदासीन मन से घर के अन्दर आया। वहाँ आगे एक स्थान पर माचे पर बैठ अपनी पत्नी को सूत कातते हुए देखा, क्योंकि पति-विरहिता अबला-स्त्रियों की यही आजीविका होती है। उसने भी उसे देखकर अनुमान से अपना पति जानकर उसका सत्कार किया, क्योंकि कुलवती स्त्रियों के ये ही लक्षण है। प्रहृष्टमानसा नित्यं स्थानमानविचक्षणा। भर्तुः प्रीतिकरा नित्यं सा नारी न पराऽपरा।।1।। हमेशा प्रसन्न मनवाली सम्मान के स्थान में विचक्षण, पति की प्रीति को धारण करनेवाली प्रमुखा नारी ही होती है, अन्य कोई नहीं। उसने बहुमानपूर्वक भद्रासन दिया, उस पर वह बैठ गया। बाद में घर की सारी स्थिति पूछी। उसने भी जो भी जैसा घटित हुआ, वह सभी पति के आगे कह दिया। सब कुछ सुनकर अत्यन्त दुखित होते हुए वह विचारने लगा सौरभ्याय भवन्त्येके नन्दानाश्चन्दना इव। मूलोच्छित्त्यै कुलस्याऽन्ये बालका बालका इव ।।1।। स एव रम्यः पुत्रो यः कुलमेव न केवलम्। पितुः कीर्तिं च धर्म च गुरुणां चाऽपि वर्धयेत् ।।1।।
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy