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धन्य-चरित्र/340 आत्म-हित का अनुसरण करना चाहिए।
स्वामी के इस प्रकार कहे जाने पर सभा में उपस्थित लोगों ने पूछा-"हे भगवन! धर्मदत्त कौन था, जिसने कर्म की कदर्थना को जानकर अपना हित साधा था?" तब स्वामी ने कहा-"सुनो!''
धर्मदत्त की कथा इसी भरतक्षेत्र में कश्मीर नामक देश है। वहाँ चन्द्रपुर नामक नगर है। वहाँ न्यायनिष्ठ यशोधवल नामक राजा राज्य-पालन करता था। उसकी रानी का नाम यशोमती था। उसकी कुक्षि से प्रभूत गुणों से सम्पन्न चन्द्रधवल नामक कुमार उत्पन्न हुआ। वह सभी शास्त्रों में पारंगत, शास्त्र-रहस्य का ज्ञाता, सभी धनुर्वेद आदि शस्त्र-कलाओं में निपुण व विशेष रूप से शकुन-शास्त्रों में अत्यन्त प्रवीण था। एक बार रात्रि में अपने भवन की ऊपरी मंजिल पर वह सुख की नींद में सोया हुआ था। तब उसने पिछली रात्रि में शृगाली के शब्दों को सुना। उसके शब्दों को जानने में कुशल होने से हृदय में विचार करते हुए यह हार्द प्राप्त हुआ कि यह शिवा मुझे महान लाभ बता रही है। इस प्रकार विचार करके शय्या से उठकर तलवार हाथ में लेकर उसके शब्दों का अनुगमन करते हुए श्मशान में पहुँचा। वहाँ एक जगह अग्निकुण्ड के मध्य में जलते हुए शव से निष्पन्न स्वर्ण-पुरुष को भिगोकर उसे कुण्ड से निकालकर दूसरी जगह भूमि के अन्दर रखकर निशान बनाकर पुनः अपने घर आकर निद्रा में लीन हो गया। सूर्योदय होने पर वाद्ययंत्रों की ध्वनि व बन्दी-जनों के आशीवर्चन की आवाज से वह जागृत हुआ। तब देव-गुरु के स्मरणपूर्वक उठकर प्राभातिक कार्य करके राजसभा के योग्य वस्त्रों व आभूषणों को धारण करके परिषदा से युक्त होकर पिता को नमन करने के लिए राजसभा में गया। तब राजसभा के योग्य अभिगमों का समर्थन करते हुए उसने राजा को प्रणाम किया। सभी सभ्यों द्वारा भी यथा योग्य विनयपूर्वक नमन किया गया। राजा ने भी अति स्नेह-युक्त वचनों द्वारा सम्मान देकर उसे अपने निकट के आसन पर बिठाया और सुख-क्षेम की वार्ता करने लगा। तभी प्रतिहारी आकर हाथ जोड़कर सामने खड़ा हो गया। राजा ने भू-संज्ञा से पूछा-"क्यों आये हो?"
प्रतीहारी ने कहा-"स्वामी! कोई भव्य-पुरुष मस्तक पर राख लगाकर जोर-जोर से "मैं लूटा गया हूँ, मैं लुटा गया हूँ"- इस प्रकार चिल्ला रहा है। अति विह्वल होकर यहाँ आये हुए उस व्यक्ति को मैंने सिंहद्वार पर रोक दिया है। अब उसके लिए क्या आज्ञा है?"
प्रतिहारी के इन वचनों को सुनकर राजा के चिंतन किया-"व्यवहार शास्त्र में भी कहा गया है कि
दुर्बलानामनाथानां बालवृद्धतपस्विनाम् ।। पिशुनैः परिभूतानां सर्वेषां पार्थिवो गतिः ।।1।।