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________________ धन्य-चरित्र/334 ज्यादा निपुण हूँ।" माता ने कहा- “हे पुत्र! वे पृथ्वी पर अति मूल्यवान नहीं, बल्कि अमूल्य है। भाग्य से ही ऐसा अवसर आता है।" शालिभद्र ने कहा-"अगर ऐसा है, तो मुँहमाँगी कीमत देकर ग्रहण कर लीजिए, जिससे वह दूसरों के हाथ न लगे।" पुत्र की त्रिभुवन में अद्भुत ऐश्वर्य-लीला को देखकर "अहो! यह लीलापति पुत्र किस प्रकार बोलता है।" इस प्रकार विचार करती हुई माता मन में अत्यन्त प्रसन्न हुई। पर मन में विचार किया कि इस प्रकार एकान्त रूप से अति भद्रिकता व सरलता शोभा को प्राप्त नहीं होती, जो अवसरोचित पद्धति जानता है, वही निपुण होता है। अतः इसे कुछ नीति वचन सुनाकर जागृत करती हूँ।" इस प्रकार विचार करके बोली-“हे पुत्र! महाराज श्रेणिक कोई माल नहीं है, किन्तु तुम्हारे स्वामी व समस्त देश के अधिपति हैं। हमारे जैसे अनेक लोग दिन-रात उनकी सेवा में लगे रहते हैं। अनेक माण्डलिक राजा, सामन्त श्रेष्ठी आदि आठों प्रहर जागृत रहते हुए उन्हीं की सेवा में बैठे रहते हैं। 'अब राजा क्या बोलेंगेइस प्रकार सुनने के उत्सुक, हाथ जोड़े सभी लोग अपलक जिनको निहारा करते हैं। तुम भी उन्हीं की कृपादृष्टि से इच्छित सुख-वैभव भोग रहे हो। अगर उनकी दृष्टि कुपित हो जाये, तो कोई भी अपनी छाया के समीप भी न खड़ा रहे। उनके प्रसन्न रहने पर सभी प्रसन्न रहते हैं। राजा के रुष्ट होने पर अपने लोग भी व्यक्ति की बात तक सुनना पसन्द नहीं करते। अतः तुम स्वयं नीचे आकर उन्हें विनयपूर्वक प्रणाम करके उनकी कृपा का अर्जन करो। उनके आने से तुम्हारे घर की शोभा में वृद्धि हुई है। अतः तुम उनके सामने जाकर विनय-बहुमान आदि करते हुए और भी ज्यादा गौरव को हासिल करो। राजा तो तुम्हारे दर्शनों के लिए उत्सुक है। तुम्हारे आने से उन्हें बहुत ही प्रसन्नता होगी। वे जमाने के अनुरूप तुम्हारा बहुमान करेंगे। अतः शीघ्र ही तुम नीचे आओ।" माता के इन वचनों को सुनकर दिल में अपार वेदना से दुःिखत होते हुए शालिभद्र विचार करने लगा-"हा! मेरे भी कोई मालिक है। इतने दिन तक तो मैं अरिहंत को ही स्वामी समझता रहा। उनके बिना अन्य किसी को भी मैंने स्वामी भाव से नहीं जाना। जिसका नाम प्रातः उठते ही लिया जाता है, भक्ति स्तुतिपूर्वक उन्हीं को नमन किया जाता है। अगर माँ कहती है कि मेरा भी कोई स्वामी है, तो फिर वह मुझसे भी ज्यादा पुण्यशाली है। मेरा पुण्य तो उनसे हीन है। ऐसी पराधीनता में कैसा सुख? संसार में पराधीनता से बढ़कर कैसा दुःख? संसार में पराधीनता से बढ़कर और कोई दुःख नहीं है। मैंने पूर्व जन्म में अल्पतर पुण्य का ही उपार्जन किया, जिससे मुझे पराधीनता, दूसरों को नमन करना आदि दुःख भुगतने पड़ रहे हैं। अतः अब मुझे ऐसा कुछ करना चाहिए, जिससे आगे मुझे किसी भी प्रकार की पराधीनता
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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