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________________ धन्य-चरित्र / 329 अलग होकर अवसरोचित कथन के द्वारा आपके कार्य को सम्पादित करूँगा । धन्य भी वहीं पर रहेगा, वह भी आपकी ओर से महाराज को प्रेरणा करेगा। वहाँ आने -मात्र से ही आपका प्रयोजन सिद्ध हो जायेगा । " अभय के वचनों को सुनकर भद्रा माता ने उपहार योग्य अद्भुत वस्तुएँ अपने साथ लीं और सुखासन पर आरूढ़ होकर अनेक दास-दासियों को साथ लेकर अभय के साथ राजद्वार की ओर गयीं । यावत् सुखासन से उतरकर सभा के अंदर प्रवेश किया, तब तक अभय ने आगे जाकर राजा के कानों में निवेदन किया- "स्वामी! शालिभद्र की माता विनति करने आयी हैं। आप कृपा करके ध्यानपूर्वक उनकी बातें श्रवण करें।" भद्रा भी राजा के समीप जाकर उपहार उनके समक्ष रखकर प्रणाम करके खड़ी हो गयी। राजा ने आदरपूर्वक हाथ के इशारे से बैठने का स्थान दिखाकर कहा—“हे सौभाग्यशालिनी ! आपका स्वागत है। आपके पुण्यशाली पुत्र की कुशल क्षेम तो है?" भद्रा ने कहा- "स्वामी की कृपा से सुख व प्रसन्नता तो होती ही है। उस पर भी अगर स्वामी की शुभ दृष्टि का प्रसार जिस पर हो जाये, तो सुख - विलास को खण्डित करने में कौन समर्थ है? जिसके ऊपर आपश्री की पूर्ण कृपा दृष्टि हो, ऐहिक भव सम्बन्धी सुख - भोग में आश्चर्य ही क्या? उसे कौन बाधा पहुँचा सकता है?" पुनः राजा ने कहा- "हे भद्रे ! मेरे द्वारा निमन्त्रित किये जाने पर भी आपका सुख - विलासी पुत्र क्यों नहीं आया?” भद्रा ने कहा- "स्वामी ! जन्म से लेकर आज तक आपकी पूर्ण कृपा से वह सुख - उपभोग का ही स्वामी रहा है। सुख का उपभोग करना मात्र ही वह जानता है, अन्य कुछ नहीं । उसके सम्पूर्ण स्वरूप को मैंने महामंत्री अभय कुमार जी के समक्ष निवेदन कर दिया है। अतः स्वामी की कृपा तो है ही, फिर भी विशेष करके सेवक के मंदिर को पवित्र कीजिए । जहाँ स्वामी की पूर्ण कृपा होती है, वहाँ कुछ भी विचारणीय नहीं होता । जैसे- श्रीरामचंद्र जी चर्मकार की पुत्री के मनोरथ को पूर्ण करने के लिए बिना बुलाये भी स्वयं वहाँ जाकर उसे स्वयं अपने साथ उसके श्वसुर - गृह ले जाकर वहाँ छोड़कर आये । इस प्रकार अनेक प्रकार से प्रजा का लालन-पालन किया। जो आप जैसे महान व्यक्ति होते हैं, वे पर के मनोरथ को पूर्ण करने में अन्य कुछ भी विचार नहीं करते। हम जैसे परमाणु के समान सेवकों का मनोरथ पूर्ण करने में आप जैसों की गुरुता की महती वृद्धि होगी, गुरुता की क्षति नहीं होगी । "अहो ! इनकी कृपालुता! अहो ! इनकी सरलता ! अहो ! इनकी प्रजा के प्रति लालन पालन की भावना !" इस प्रकार अनेक युगों तक आपकी कीर्ति स्थिर रहेगी। अतः कृपा करके मेरी विनति स्वीकार करके यथासुख आपके पुनित - चरणों के न्यासपूर्वक मेरे घर को पावन कीजिए। आपके पधारने से आपके सेवक लीलापति
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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