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________________ धन्य-चरित्र/323 बहू को एक-एक कम्बल-खण्ड दिया। उन्होंने कहा-"यह क्या है? हम इसका क्या करें?" दासी ने कहा-"सेठानियों! आज परदेशी व्यापारी सवा-सवा लाख रूपयों के मूल्य वाले सोलह रत्न कम्बल लेकर माताजी के पास आये थे। उन्होंने कम्बल दिखाये। माता ने कहा कि 32 कम्बल चाहिए। तब उन व्यापारियों ने बताया कि ये कम्बल हर जगह नहीं बनते, न ही मिलते हैं। नेपाल देश में जलती हुई ईंटों के मध्य अग्नि-योनि वाले चूहे जब कभी उत्पन्न होते है, तब उनके रोमों को ग्रहण करके ये कम्बल बनाये जाते है। समस्त देशों में भ्रमण करने के बाद भी ये कम्बल इतनी ही मात्रा में उपलब्ध हुए है, ज्यादा नहीं मिले। ये किसी-किसी काल में ही उत्पादित किये जाते है, हमेशा नहीं। इनके गुण तीनों ऋतुओं में सुखदायी होते हैं। अग्नि में डालने पर ये ज्यादा शुद्ध व शुभ्र होकर निखर जाते हैं। इस प्रकार भद्रा माता ने अति नवीन तथा अद्भुत वस्तु जानकर एक-एक कम्बल का सवा-सवा लाख मूल्य चुकाकर सोलहों कम्बल ग्रहण कर लिये। फिर एक-एक कम्बल के दो-दो टुकड़े करवाकर आपके उपयोग के लिए इन खण्डों को भेजा है।" __ इस प्रकार दासी के कथन को सुनकर बहुओं ने उन खण्डों को हाथों में ग्रहण किया। ऊनी कम्बल होने के कारण कर्कश स्पर्श जानकर मुँह मचकाते हुए "हम इसे ओढ़ने में समर्थ नहीं है, इनसे केवल पाँव ही पौंछे जा सकते हैं, अन्य कार्य में इनका उपयोग नहीं है।" इस प्रकार कहकर स्नान करके उन खण्डों से पाँवों के तलुवे पौंछकर कूड़ेदान में डाल दिये। दासी ने जाकर भद्रा माता को सब कुछ निवेदन कर दिया। भद्रा ने हँसते हुए कहा कि "देवदूष्य वस्त्र के आगे इन कम्बलों की क्या कींमत?" उधर राजा की पट्टरानी चेलना देवी ने कम्बल-विषयक राजा और व्यापारियों की सारी बातें सुनकर राजा को आक्रोशपूर्वक इस प्रकार कहा-"आज मैंने मेरे प्रति आपके स्नेह को परख लिया। परेदश से जो कोई भी नयी वस्तु आपके पास आती है, वह आप स्वयं देखकर धन व्यय के डर से बाहर से ही वापस भेज देते हैं, अन्तःपुर में तो दर्शन मात्र के लिए भी प्रेषित नहीं करते। ऐसा करने का रहस्य मुझे ज्ञात हो गया कि अगर आप अन्तपुर में देखने के लिए भेजेंगे, तो कदाचित् अन्तःपुर की स्त्रियाँ वे वस्तुएँ खरीदने के लिए आपसे कहेंगी, उससे आपके धन का व्यय करना पड़ जायेगा। अतः अपने इसी कृपणता दोष के कारण आप खुश होकर परदेसी व्यापारियों व उनके माल को बाहर से ही लौटा देते है। क्या आपका हमारे प्रति परम स्नेह है? नहीं है। जो छ: ऋतु के अनुकूल सुख प्रदान करनेवाले रत्न-कम्बल आये थे, आपने उनको भी स्वयं ही देखकर विसर्जित कर दिया। एक कम्बल भी हमारे लिए नहीं खरीदा। अतः आपका जो स्नेह हैं, वह दिखावा ही प्रतीत होता है।" राजा ने कहा-"नहीं, नहीं। यह मेरी कृपणता नहीं है। मैंने तो वास्तव में
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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