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________________ धन्य - चरित्र / 312 समान होती है। अतः लक्ष्मी का व्यय दानादि कार्यों में करने से परोपकार तथा पुण्य होता है - यह जिनाज्ञा है और वीतराग की सेवा से भी जिनाज्ञा का पालन श्रेष्ठ होता है। सेवा का फल तो स्वर्ग की प्राप्ति है, पर आज्ञा-पालन का फल तो मोक्ष ही है । अतः जिनाज्ञापूर्वक यथाशक्ति दानादि धर्म में प्रयत्न करना चाहिए । यही मूल तत्त्व की बात है । " इस प्रकार मुनीन्द्र के द्वारा यह सब कहकर उपरत होने पर धनसार श्रेष्ठी ने मस्तक पर अंजलि करते हुए अपने हृदय में रहे हुए अनेक संशयों को पूछने के उद्देश्य से कहा - "हे भगवन! किस कर्म के द्वारा मेरा यह धन्य नामक पुत्र सम्पूर्ण अद्भुत सम्पदाओं का एक मात्र स्थान - रूप हुआ? पुनः मेरे ये धनदत्त आदि तीनों पुत्र विद्वान होते हुए भी सम्पदा की प्राप्ति होने पर भी बार-बार रंक क्यों बने ? धन्य के साथ इनका संयोग व वियोग होने पर अग्नि के साथ संयोग व वियोग की स्थिति में लोहे की प्रभा की तरह लक्ष्मी का आना-जाना कैसे हुआ? सतियों में शिरोमणि होने पर भी शालिभद्र की बहन सुभद्रा ने शीत- ताप आदि की वेदना को सहते हुए मिट्टी तक का भी वहन किस कारण से किया?” धनसार द्वारा इस प्रकार के प्रश्न किये जाने पर वाणी के ईश मुनीन्द्र ने निर्मल व स्वच्छ वाणी में कहा - "हे भद्र! कर्मों की गति विचित्र व अनिर्वचनीय है । कर्मों के द्वारा क्या - क्या नहीं होता? जीवों की गति, कर्मों की परिणति और पुद्गल - पर्यायों का आविर्भाव - तिरोभाव आदि शक्ति जिन अथवा जिनागम को छोड़कर कौन जानने में समर्थ है? अतः इन सभी के पूर्वभवों को सावधान होकर सुनो ।। धन्य आदि के पूर्वभव || इसी भरतक्षेत्र के प्रतिष्ठानपुर नगर में कोई एक विश्व के दरिद्रता रूपी प्राणियों के द्वारा पिसी हुई के समान दासी की तरह दुःखी एक वृद्धा थी। वह अपनी आजीविका का निर्वाह करने के लिए दूसरों के घर में पीसना, खांडना, भूमि का लेपन करना, जल आदि भरकर लाना आदि क्रियाओं के द्वारा अत्यधिक शारीरिक दुःख को सहन करती थी । इस वृद्धा के निर्मल आशयवाला, विनयी तथा दान की रुचिवाला पुत्र था । वह लोगों की गायों व बछड़ों को अपनी आजीविका के लिए चराने ले जाता था । इस प्रकार अत्यधिक कष्टपूर्वक वे दोनों निर्वाह करते थे। एक बार किसी पर्व के अवसर पर गाय बछड़ों आदि को चराकर लौटते हुए प्रत्येक घर में खीर का भोजन बनाये जाते हुए और बालकों के समूह द्वारा
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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