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________________ धन्य-चरित्र / 297 स्वर में उस दोहे को बोलते हुए नाचने लगा। यह सुनकर और देखकर भोगदेव ने कहा- "हे भाई धनदत्त ! तुम क्या बोलते हो ? इस बात का क्या भावार्थ है? जो है, उसे सत्य - सत्य बताओ ।" धनदत्त ने कहा- ' -" हे तात! जीव का भावार्थ कहता हूँ । उसे सुनिए - इसी नगर में दुर्गतपताका नाम से मेरे पिता के घर में जीव कर्मकर था । वह रात-दिन घर के सभी काम करता था। उसकी पत्नी भी इसी के घर में कूटना - पीसना आदि कार्य करती थी । इस प्रकार वे दोनों कठिन परिश्रम के द्वारा आजीविका करते थे। एक बार वह दुर्गतपताका किसी काम से अन्य महेभ्यों के घर गया, तो उसने वहाँ भिक्षा के लिए आये हुए साधुओं को देखा। वे महेभ्य प्रतिदिन अत्यधिक भक्ति के द्वारा अशन, पान, खादिम, स्वादिम आदि चारों अशन का दान देने के लिए साधुओं को निमन्त्रित करते थे। बार-बार अत्याग्रह करते थे । अनेक वस्त्र, पात्र, औषध आदि ग्रहण करने के लिए विविध भक्ति - युक्त वचनों के द्वारा विज्ञप्ति करते थे। पर साधु जिन-जिन वस्तुओं को निर्दोष व योग्य जानते थे, उन्हें ग्रहण करते थे, अन्यथा नहीं । कुछेक योग्य भी वस्तु निर्लोभी होने से नहीं ग्रहण करते थे । गोचरी के लिए भ्रमण करते हुए प्रत्येक घर में भिक्षा के लिए विज्ञप्ति करते हुए मार्ग में ही आहारादि का निमंत्रण करते थे, पर निःस्पृह भाव से साधुजन किन्हीं के घरों में जाते थे, तो किन्हीं के घरों में नहीं जाते थे। जिनके घर में आहारादि ग्रहण करते थे, वे तो मन में हर्ष धारण करते हुए खजाने के लाभ से भी अधिक होनेवाली प्रसन्नता को प्राप्त करते थे। पर जिनके घरों में नहीं जाते थे, वे अत्यधिक दुःख करते हुए अपनी आत्मा की निंदा करते थे कि हा! हम तो निर्भागियों के शिरोमणि हैं, जो कि हमारे घर में इन मुनियों के चरण नहीं पड़े। अगर आये भी, तो हमारे द्वारा दिया गया कुछ भी इन्होंने ग्रहण नहीं किया। इस प्रकार पुनः पुनः पश्चात्ताप करते थे । वह सभी दुर्गतपताका देखता था और विचारता था कि अहो! ये महापुरुष परम निःस्पृह हैं, जो कि इस प्रकार के महेभ्यों द्वारा दिये गये अति मूल्यवान सरस मोदकों को ग्रहण नहीं करते, बल्कि रूक्ष व नीरस पदार्थों को ग्रहण करते हैं। इनका अवतार धन्य है, धन्य है वे दानरसिक! जो कि भोजन के द्वारा ऐसे सुपात्र मुनियों का पोषण करते हैं। मैंने तो पूर्वभव में किसी को भी कुछ भी दान नहीं दिया, जिससे उदर भरना भी अत्यन्त कठिन है। मैं महा पापात्मा हूँ । मुझे ऐसा अवसर कब मिलेगा, जबकि मैं दान दूँगा? साधु के योग्य आहार मेरे घर में कहाँ ? और मेरे घर में साधु भी कैसे आयेंगे? हम जैसे को नदी - नौका का संयोग कहाँ? अगर आहारादि सामग्री का संयोग भी हो और साधु ग्रहण न करे, तो मेरे मनोरथ व्यर्थ ही
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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