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________________ धन्य-चरित्र/292 श्रीदेव ने पूछा-"भगवती! कहाँ जाओगी?" लक्ष्मी ने कहा-"इसी नगर में पूर्वभव में मुनि को दान देनेवाला भोगदेव नामक सार्थवाह रहता है, जिसके पूर्वकृत कर्मों का उदय अभी नहीं आने से वर्जित-विशाल भोगवाला है। अब उसका पुण्योदय हुआ है। अतः भोगदेव नाम को सार्थक बनाने के लिए उसके घर जाना ही होगा।" इतना कहकर लक्ष्मी गायब होकर उसके घर से चली गयी। अब भोगदेव के घर पर गयी हुई लक्ष्मी ने कुछ ही दिनों में धन-धान्य-सुवर्ण-रत्न-मणि-माणिक्य आदि समृद्धि को बढ़ाना शुरू कर दिया। जहाँ-जहाँ भी वह व्यापार करता था, आशा से अधिक लाभ की प्राप्ति होती थी। चारों ओर से घर ऋद्धि से पूर्ण होने लगा। नगर में महाजनों के बीच भी उसका सम्मान बढ़ गया। राजद्वार में भी राजा के द्वारा सम्मान प्राप्त हुआ। घर का आँगन भी अश्व आदि, सुखासन आदि तथा दास-दासी, मन्त्रियों आदि से व्याप्त हो जाने से भवन में प्रवेश करना भी दुःशक्य हो गया। यश-प्रतिष्ठा आदि से समस्त नगर को धवलित करके भोगदेव लक्ष्मी को प्राप्त करके माँगनेवालों को जरुरत से ज्यादा देता था, उपकार करता था, इससे उसका यश जगत में विख्यात हो गया। स्वयं वस्त्राभरण से सज्जित होकर, देव की तरह विपुल शृंगार करके, अश्व आदि वाहन पर सुखासन पर आरूढ़ होकर, सैकड़ों भटों से घिरा हुआ चतुष्पथ आदि मार्ग पर जाता था। सभी महेभ्य श्रेष्ठी उठकर झुककर प्रणाम करते थे। उसके चले जाने पर उसके गुणों का वर्णन करते थे। जैसे–“पर-दुःख को नाश करने के स्वभाववाले इस श्रेष्ठी का जीवन सफल है। इसी के द्वारा प्राप्त ऋद्धि ही श्रेष्ठतम है, जिससे यह प्रतिदिन परोपकार में प्रवृत रहता है। इसका नाम मात्र लेने से भी अच्छा ही होता है। यह तो नगर की शोभा है।" इत्यादि गुणों का वर्णन जन-जन करता था। इस प्रकार त्रिवर्ग के साधनपूर्वक अपना समय व्यतीत करता था। उसकी पत्नी का नाम भोगवती था। एक बार वह उसके पास जाकर कहने लगा-"हे प्रिये! यथेष्ट दान दो। विलम्ब और कृपणता मत करना। मन-इच्छित वस्त्र-आभूषण आदि भी करवा लेना। मेरे प्रति कोई शंका मत रखना। इहलोक के भोग-विलास में कुछ भी कृपणता मत करना। ज्यादा क्या कहूँ? जब तक पुण्य है, तब तक लक्ष्मी है। पुण्य पूर्ण हो जाने पर रोकने पर भी लक्ष्मी रुकनेवाली नहीं है। अतः पुण्य का उपार्जन करो। उभय लोक को साधने से लक्ष्मी सफल होती है। यह बिना किसी शंका के जानो। अतः प्रिये! दान–भोगादि के द्वारा अभी लक्ष्मी के फल को प्राप्त करो। बाद में परलोक के हित के लिए चारित्र को ग्रहण करेंगे, क्योंकि हे प्रिय! हाथी
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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