SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 285
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धन्य-चरित्र/277 में समर्थ नहीं हो। इस लक्ष्मी का भोक्ता तो धन्यात्मा धन्य ही है, दूसरा कोई नहीं है। जैसे सम्पूर्ण नदियों का भोक्ता समुद्र ही होता है। शास्त्र में भी कहा गया है कि प्रबल पुण्यवानों के लिए ही लक्ष्मी भोग्या है। अगर तुम लोग उसकी सेवा में रहते हो, उसकी पुण्यमयी शरण में निवास करते हो, तो इच्छित सुख को प्राप्त करते हुए दिखाई दोगे। पर अगर धन लेकर पृथक घर में रहकर स्वेच्छा से धन का उपभोग करेंगे- ऐसा सोचते हो, तो इस इच्छा को पूरा करनेवाला दिन न भूत में था, न भविष्य में होगा। हे जड़बुद्धि मूर्यो! चार बार अमित धन छोड़कर यह चला गया, उसके बाद उस धन से क्या-क्या भोग-भोगे? अभी भी तुम्हें सीख नहीं मिली कि यह सज्जनों का शिरोमणि तुम्हारे द्वारा अपराध किये जाने पर भी अपनी सज्जनता को नहीं छोड़ता है। तुम लोग तो कृतघ्नियों में अग्रणी निर्लज्ज हो, जो धन्य के किये हुए सैकड़ों उपकारों को भूल गये हो। अगर तुम्हें सुख को प्राप्त करने की इच्छा है, तो धन्य की ही उपासना करो। कल्याण होगा।" इस प्रकार के देवों के वचनों को सुनकर उत्पन्न हुए प्रतिबोधवाले वे धन को छोड़कर लौटकर धन्य के पास गये। धन्य को कहने लगे-"वत्स! तूं ही भाग्यवान है। तूं ही गुणनिधि है। हम तो निर्भागी मूढ-बुद्धि से युक्त है। आज ही देवों द्वारा हम प्रतिबोध को प्राप्त हुए हैं। हे जगतमित्र सूर्य! इतने समय तक मात्सर्य-भाव से युक्त हमारे द्वारा ऊल्लू पक्षी की तरह तुम्हारी महिमा को नहीं जाना गया। हे भाई! शिशिर ऋतु के सूर्य के साथ जुगनू के बच्चे की तरह भाग्यहीन हमने वृथा ही तुम्हारे साथ स्पर्धा की। बुद्धि, विवेक तथा पुण्य-रहित घमण्ड के निरर्थक होने पर भी आज तक हमने तुझ जैसे कुल के कल्पवृक्ष को नहीं पहचाना। चिंतामणि को काँच के समान माना । वह सभी अज्ञान से विलसित हमारा व्यवहार तुम माफ कर देना। तुम तो गुण रूपी रत्नों के सागर हो। हम तो छिछले है। तुम्हारे साथ जो प्रतिकूल व्यवहार किया है, उसे स्मरण करते हुए हमें अत्यधिक लज्जा होती है। कैसे तुम्हें अपना मुख दिखाएं?" धन्य ने उनके इस प्रकार के वचनों को सुनकर कहा-“हे पूज्यों! आप मुझसे बड़े है। मैं तो आपका अनुचर जैसा हूँ। इतने दिनों तक मेरे ही अशुभ कर्मों का उदय था, जिससे कि आपकी कृपा नहीं मिली। अब तो मुझ शिशु पर आपके मन की प्रसन्नता हो गयी है, जिससे मेरा मनोरथ पूर्ण हुआ, कुछ भी कमी नहीं रही। यह घर, यह धन, यह सम्पत्ति सब कुछ आपका ही है। मैं भी आपका आज्ञापलक हूँ| अतः यथेच्छा दान, भोग, विलास आदि में इस धन का व्यय कीजिए। कुछ भी कमी नहीं है। कोई शंका मन में न रखें।" इस प्रकार मिष्ट-वचनों के द्वारा तृप्ति को प्राप्त करते हुए वे भी ईर्ष्या
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy