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________________ धन्य - चरित्र / 264 भाई को लेकर त्वरित गति से दो घड़ी समय बीतने से पहले ही नगर की सीमा से बाहर निकल जाना, जिससे कुयोग न लगे । " तब सेवक उस खाट को उठाकर दौड़ने लगे । श्रेष्ठी ने पुनः सभी लोगों के सामने कहा- "मैंने तो यह सब भाई के लिए ही किया है, अन्यथा कुछ नहीं है ।" सभी ने कहा- "सत्य कहते हैं, हम तो जानते ही हैं। आप जैसा स्नेह - पात्र कौन है, जो नित्य परिश्रम के द्वारा औषध आदि अगणित उपायों को करे? अतः उस तीर्थ में जाकर देवता के प्रसाद से आप अपने इच्छित को अवश्य ही प्राप्त करेंगे ।" "ऐसा ही हो" - इस प्रकार अन्य सभी ने भी आशीर्वाद दिया। तब श्रेष्ठी ने वादिंत्र - वादकों, बन्दी - गायकों आदि को मुँहमाँगा इनाम देकर सभी महेभ्यों को परस्पर प्रणाम आदि विदाई - व्यवहार करके बहुत ही मुश्किल से उन्हें वापस भेजा। वे भी स्नेहाश्रुओं को बरसाते हुए उसके गुणों का वर्णन करते हुए पुनः पुनः मुड़-मुड़कर देखते हुए वापस लौट गये । श्रेष्ठी के भी स्व-इच्छित कार्य की सिद्धि हो गयी। वह हर्षपूर्वक रथ पर आरूढ़ होकर मार्ग पर चला। जब तक वह अपने सार्थ से मिला, तब तक पाँच योजन भूमि को वे उल्लांघ चुके थे। सार्थ से वह इस प्रकार मिला - योजन- आधे योजन की दूरी पर स्थान-स्थान पर पूर्व में संकेत किये हुए रथ, अश्व, सैनिक, ऊँट आदि रखे हुए थे, वहाँ-वहाँ वाहन और सैनिकों की अदला-बदली करते हुए अविच्छिन्न धारा से दौड़ते हुए जा रहे थे । थके हुए वाहन, सैनिक आदि वहीं पर रुके हुए थे और वहाँ रहकर वे उसके साथ आगे बढ़ रहे थे। इस रीति से मार्ग को अतिक्रमण करते हुए वह क्रम से सार्थ को प्राप्त हुआ । तब अभय ने सेवकों को आदेश दिया- 'खाट पर स्थापित राजा को बन्धन से मुक्त कर दो। एक बड़े रथ पर आरूढ़ करो। बहुत से घुड़सवारों के द्वारा चारों ओर से घेरकर चाटु वचन कहते हुए सुन्दर छत्र के द्वारा आतप का निवारण करते हुए कहीं भी स्खलना पाये बिना मार्ग का अतिक्रमण करो। जो-जो आदेश वे देते हैं, वह सभी विनयपूर्वक करते जाना। मैं भी पीछे-पीछे आ रहा हूँ।” सेवकों को उस प्रकार से विनय आदि करते हुए देखकर आशय को जानते हुए भी प्रद्योत ने पूछा - " किसके आदेश से बन्धनों को अलग कर रहे हो? महारथ पर मुझे क्यों बैठाया जा रहा है?" सेवकों ने कहा- "हमारे स्वामी के आदेश से ।" प्रद्योत ने पूछा - "तुम्हारे स्वामी कहाँ है?" उन्होंने कहा - "वे आ रहे हैं। बहुत ज्यादा दूर नहीं हैं। आपको कुछ भी
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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