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________________ धन्य-चरित्र/254 से ही उनके रूप को देखकर चमत्कृत होती हुई मन में विचार करने लगी-"अहो! इनका स्वरूप, चातुर्य, लावण्य ही है, जिससे राजा विभ्रम में पड़ गया है, तो इसमें आश्चर्य ही क्या है? इन दोनों के हाव-भाव को देखकर कौन मुनीन्द्र अथवा मूर्खेन्द्र स्थिर-चित्त रह सकता है?" इस प्रकार मन ही मन विचार करते हुए उन दोनों के पास जाकर थाल उनके आगे रखकर प्रणाम करके शिष्टाचारपूर्वक दूती कहने लगी-“भाग्यनिधि! राजा ने स्वयं देव-पूजा-महोत्सव का प्रसाद अति प्रसन्नतापूर्वक आपको भेजा है तथा आप दोनों की कुशलता पूछी है। आपके घर के स्वामी पर वे अति प्रसन्न हैं। अत्यधिक प्रेमभाव उन पर धारण करते हैं। "जो गृहपति इस प्रकार का है, उनकी गृहिणियाँ भी वैसी ही होंगी। अतः बहुमानपूर्वक उनके सुख विषयक प्रश्न पूछना।" इस प्रकार राजा ने अपने श्रीमुख से आपको मेरे साथ कहलवाया है।" यह सुनकर पूर्व में शिक्षा दी हुई वे दोनों थोड़ा मुस्करा कर बोलीं"आपने जो कहा, वह बिल्कुल सत्य है। राजा की कृपा से प्रजा का सुख होता है। पर पुरुष-प्रधान व्यवहार होता है, तो पुरुषों को अधीन करके प्रशस्ति-वाक्य का कथन आश्वासनकारी होता है। आपने जो कहा कि "राजा ने आप दोनों का सुख–प्रश्न पूछा है" वह तो सर्वत्र अवसरोचित प्रिय ही कहना चाहिए-यह तो आपकी नीति-निपुणता का वाक-चातुर्य है, क्योंकि हम कहाँ और राजा कहाँ? थोड़ी बहुत भी पहचान होवे, तो पहले परस्पर मिलन होवे, उसके बाद आपस में प्रेमपूर्वक वार्तालाप होता हैं, तब कहीं जाकर संदेश आदि कहना संभव होता है, अन्यथा नहीं। हम दोनों ने तो कभी राजा के दर्शन भी नहीं किये, तो फिर सुख-विषयक प्रश्न की सम्भावना भी कहाँ से हो?" __ इस प्रकार उन दोनों के कथन को सुनकर थोडा मुस्कुराते हुए दूती ने इधर-उधर देखकर एकान्त का अवलोकन करके उन दोनों के कान के पास जाकर कहा-“बहुत अच्छा-बहुत अच्छा! साहुकार की बहुएँ होकर इस प्रकार अत्यन्त अपलाप करेंगी, तो फिर सत्य स्थिति कैसे प्रकट होगी? उस बिचारे राजा को कटाक्षों के विभ्रम में डालकर मन-वचन-काया आदि सर्वस्व लुटकर अपने अधीन करके अब उसके सम्पूर्ण अपलाप का चातुर्य क्यों दिखाती हो? खरगोश के चौथा पाँव नहीं होता-यह क्या बालक को समझा रही हो? मुझे तो सब कुछ पता है। प्रसूति करानेवाली के आगे पेट को कितनी देर छिपाया जा सकता है? जिस दिन से आप दोनों के दर्शन हुए है, उसी दिन से ही खाना, पीना, सोना, निद्रा आदि सभी का त्याग करके लक्ष्यप्रिय योगी की तरह सर्वदा राजा उदास रहते हैं। तुम दोनों का ही ध्यान करते हैं। आगे-पीछे, ऊपर-नीचे,
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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