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धन्य-चरित्र/241 निकल पाता, वर्तमान में तो इस जगत में बुद्धि से तुम्ही अद्वितीय हो।"
इस प्रकार की बातों में कितने ही दिन बीत गये। तब एक दिन अभय ने पिता से पूछा-'हे पिता! आपको मेरे पीछे से राज्य का निर्वाह करने में कोई तकलीफ तो नहीं हुई? कोई चिंता या दुःख तो नहीं हुआ?"
राजा ने कहा-“हे वत्स! तुम्हारे जाने के बाद राज्य को नष्ट करनेवाले अनेक प्रबल उत्पाद उत्पन्न हुए। परन्तु अपरिमित बुद्धि के स्वामी एक धन्य नामक सज्जन पुरुष ने उन सभी विपदाओं को पराजित कर दिया और राज्य को दीप्तिमान किया।"
अभय ने कहा-"वह धन्य कौन है, जिसकी आप इतनी प्रशंसा कर रहे
राजा ने कहा-"तुम जिस दिन यहाँ आये थे, उस दिन वह तुम्हारे पास ही बैठा हुआ था। उपहार आदि ग्रहण करने के समय मेरे द्वारा तुम्हें जिससे उपहार आदि लेने से मना किया था, क्योंकि उसके गुणों को देखकर मैंने अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया है। अतः जामाता को तो देना ही श्रेष्ठ है, उससे लेना श्रेष्ठ नहीं है।" ।
अभय ने कहा-"उसमें क्या-क्या गुण हैं?"
राजा ने कहा-"वत्स! यह सज्जनों में मान्य धन्य औत्पातिकी बुद्धि में तो तुम्हारे ही तुल्य है। सौजन्य-गुण में तो वह जगत में अद्वितीय है, क्योंकि इसी से विश्व में सभी राजाओं में सूर्य के समान तथा चन्द्रमा की किरणों के समान बुद्धि की किरणों से उसने सभी को उपकृत किया है। तेजस्वियों में अग्रणी इस पुरुष ने मेरे विशाल राज्य को निधान से भूतल की तरह अत्यधिक भर दिया है। भाग्यलक्ष्मी के मित्र इस धन्य ने तो निश्चय ही समस्त राजधानी को अवसर की सावधानता के साथ अलंकृत किया है, जैसे कि मुख सारे शरीर में अग्रणी तथा शरीर की शोभा होता है। इसी प्रकार इस धन्य ने अपने घर से निकलकर विदेश में भी अपने ही देश की तरह किन्हीं श्रेष्ठ कर्मों के विपाक से अद्भुत भोग-लक्ष्मी को भोगा है। पुनः अपने भाग्य से प्राप्त अपरिमित धन के द्वारा अपने कृतघ्न धनहीन भाइयों को हर्षपूर्वक तथा विनय से अत्यधिक धनी किया।
इसके यहाँ आने से तथा नजर से देखने-मात्र से श्रेष्ठी की पूर्व में मुरझायी हुई वाटिका भी फिर नये पुष्पों और फलों आदि से हरी-भरी हो गयी है। तुम्हारे अवन्ति चले जाने पर इसने सूर्य के द्वारा प्रेरित किरणों की तरह मेरे राज्य की स्थिति को द्योतित किया है।