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________________ धन्य - चरित्र / 237 ने तो एक घड़ी - मात्र में बहुत सारा मार्ग तय कर लिया । पुनः पच्चीस योजन आगे जाने पर वह वेगवती से मिला । पुनः उसी प्रकार से मूत्रघटी को फोड़-फोड़कर अनलगिरि को रोका। इस प्रकार चार घटी पूर्ण हो जाने पर पुनः अनलगिरि वेगवती से मिला। तब प्रद्योत राजा के पुत्र ने वत्सराज को मारने के लिए धनुष-बाण चढ़ाया, तब वासवदत्ता वत्सराज को अपने पीछे करके भाई के सम्मुख आकर खड़ी हो गयी। प्रद्योत - सुत विचारने लगा कि बहिन तो उसको पीछे करके खुद आगे आ गयी है । बहिन को कैसे मारूं ? इस प्रकार विचार करते हुए घड़ी - मात्र समय व्यतीत हो गया और वत्सराज का नगर आ गया। वेगवती दौड़ती हुई नगर के मध्य प्रवेश कर गयी, तब राजा प्रद्योत का पुत्र निराश होकर वापस लौट गया। वत्सराज आदि वेगवती की पीठ से उतरकर श्रम को दूर करने में लग गये, तब तक तो थकान से वेगवती मर गयी । वत्सराज ने वासवदत्ता के साथ हर्षपूर्वक राजमहल में प्रवेश किया । इधर प्रद्योत राजा के पुत्र ने जाकर सभी घटना कही। उसे सुनकर क्रोध से धमधमायमान होते हुए राजा ने युद्ध की तैयारी शुरू कर दी। तब एक मुख्य मंत्री ने राजा से कहा - "राजन! अभी युद्ध करना अनुचित है, क्योंकि राजकुमारी ने स्वयं स्वेच्छा से पति के रूप में यह वर स्वीकार किया है। वह उसे कैसे छोड़ेगी? अतः किसी उपाय से या छल से उसे वापस ले आया भी जाये, तो भी अन्य के द्वारा अंगीकृत तथा भोगी हुई राजकुमारी को कौन कुलीन ग्रहण करेगा? बल्कि इसने तो आपकी चिंता को दूर ही किया है। स्वयंवर आदि के प्रभूत द्रव्य - व्यय को बचाया है। अपने अनुरूप वर को देखकर वरा है। कुछ भी अनुचित नहीं किया है। वह भी उच्च कुल का राजपुत्र तथा विद्याओं व कलाओं का एकमात्र निधि है । गवेषणा करने पर भी ऐसा वर कभी प्राप्त नहीं होता। यह योग्य युगल है । इस समय युद्ध करने से अपयश होगा और मूर्खता ही प्रकट होगी। इसलिए सकल सामग्री से युक्त प्रधान पुरुषों के द्वारा वहाँ जाकर पाणिग्रहण करवाना चाहिए । यही युक्त है, दूसरा कुछ नहीं ।" तब राजा मान गया। एक बार अवन्ति में अग्नि- भय उत्पन्न हुआ । घर - भवन आदि की श्रेणियाँ देखते ही देखते भस्म हो गयीं। पानी आदि के द्वारा बुझाये जाने पर भी आग शांत नहीं हुई। एक जगह बुझाने की कोशिश करते, तब तक दूसरी जगह आग की भंयकर लपटें उठने लगतीं। लोगों ने देवी-देवताओं के अनेक भोग, पूजा आदि की मनौतियाँ मानीं, पर आग शान्त नहीं हुई, अपितु और अधिक भड़कने लगी । कितने राजकीय आवास भी जल गये । रात्रि मे भी कोई सुख से नहीं सो
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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