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धन्य - चरित्र / 233
मैं समर्थ नहीं हूँ। पुनः इस जन्म में असत् कलंक देने से आपकी क्या गति होगी?"
यह सुनकर अध्यापक बोला - "हे कुशिष्याओं में अग्रणी ! अध्यापक के द्वारा शिक्षा दिये जाने पर छात्रों को प्रत्युत्तर नहीं देना चाहिए। ऐसा न करके उलटे तुम तो कुष्ठित्व का कलंक देकर प्रतिवादी की तरह सामने जवाब देती हो। अगर मुझ जैसे विमल व नीरोगी शरीरवाले अध्यापक को कलंक देकर बोलती हो, तो अन्य किसको छोड़ोगी यह मैंने जान लिया है ।"
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कुमारी ने कहा- "हे आर्य! कमल-दल के समान नयनोंवाली को आपने काणाक्ष कैसे कहा?"
उदयन ने कहा-' - "मुझे तो तुम्हारे पिता के द्वारा ज्ञात हुआ ।" - "मुझे भी पिता ने कहा । "
कुमारी ने कहा--":
इस प्रकार विवाद करते हुए दोनों ही शंकाशील हो गये। तब निर्णय करने के लिए बीच के पर्दे को हटाकर परस्पर रूप को देखते हुए दोनों के चित्त में परमानंद हुआ। परस्पर प्रशंसा करने लगे - "अहो ! सौभाग्य-सत्त्व, निर्मथ्य रूप बनाया है भगवान ने । त्रैलोक्य के सर्वस्व की तरह विधाता के द्वारा अतिशय की चतुरता घटित की है।"
इस प्रकार परस्पर रूप और गुणों में रंजित, प्रेम रूपी अमृत में आप्लावित होते हुए विस्मय - सहित कहने लगे - " अहो ! राजा ने हम दोनों को ठग लिया है।”
इस प्रकार परस्पर खेद - खिन्न होते हुए फिर से कहने लगे - "हम तो पहले ही राजा के द्वारा ठगे गये हैं, तो हम दोनों द्वारा भी उनको ठगने में कोई दोष नहीं है ।"
फिर कुमारी ने कहा- " इस भव में तो आप ही मेरे पति हैं।" उदयन ने भी कहा - " मेरी भी तुम्ही प्राणप्रिया हो ।"
इस प्रकार निश्चित करके परस्पर अनुरक्त वे दोनों कंचनमाला नामक धात्री के सिवाय सभी से अज्ञात दाम्पत्य को सुखपूर्वक तथा यथेच्छ कामभोगों को भोगने लगे। पठन-पाठन तो बाह्य वृत्ति थी, अन्तर - वृत्ति से तो प्रवर्धमान स्नेहवाले दम्पति की तरह देव - सुख की उपमावाले वैषयिक सुखों को वे भोग
थे ।
इस प्रकार कितना ही काल बीत जाने पर एक बार प्रद्योत राजा का हस्ति रत्न अनल गिरिराज मदोन्मत्त हो गया । हस्तिशाला के आलान-स्तम्भ को उखाड़कर समस्त नगर में इधर-उधर घरों और मकानों को ध्वस्त करने लगा,