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________________ धन्य-चरित्र/215 दुर्भर जठर को भरता रहा। न तो स्वयं भोगा, न ही पुत्रों को दिया। न यश प्राप्त करने के लिए याचकों को ही दिया, न दीन-हीन का उद्धार ही किया। अतः अब अवश्य ही भव को सफल करूँगा। यह विचार करके मैं आ गया हूँ| हे पुत्रों! मुनि-वचनों के उपकार के कारण धन-धान्यादि में मैं निर्मम हो गया हूँ। कृपणता के दोष के कारण मेरा अतीत दुर्गति-पोषण के लिए ही रहा। तुम सबके दान-भोगादि में मैं अन्तराय-कारक ही हुआ। तुम सब ने भी मेरे सुपुत्र होने से मेरे आशय के अनुकूल निर्वाह किया। अतः हे पुत्रों! साधु के द्वारा धनादिक सभी अधिकरण अत्यधिक दुःखदायक रूप से बताये गये हैं। अतः धनादि को पात्रसात् करने की इच्छा करता हूँ। दानादि से रहित अर्थ केवल अनर्थ के लिए होता है। अतः दीनों का उद्धार, सुपात्र का पोषण, कुटुम्ब का निर्वाह आदि कार्यों में इसका भव्य फल ग्रहण करना चाहता हूँ। इसलिए तुम लोगों की भोग-त्यागादि जो भी इच्छा हो, वह कहो। सुखपूर्वक अर्थ ग्रहण करो। मैंने आज्ञा दे दी है, फिर से मत पूछना। मैं तो अब दानादि कार्य ज्यादा से ज्यादा करूँगा। यह कहकर उस कपटी (छद्मवेशी) धनकर्मा ने दीनादि को यथेच्छा दान दिया। दुःखीजनों, स्वजनों तथा याचकजनों को अपनी-अपनी इच्छा से भी अधिक दान दिया। इस प्रकार थोड़े ही दिनों में आठ करोड़ धन उस कपट-श्रेष्ठी के द्वारा व्यय करवाया गया। जब वह नगर में भव्य वस्त्राभरण आदि पहनकर सुखासन युक्त अश्वस्थ पर सवार होकर निकलता, तो उसके कोई बचपन के दोस्त आदि पूछते–'हे श्रेष्ठी! अब तुम्हारी इस प्रकार की त्याग-भोग की प्रवृत्ति कैसे हो गयी?" तब पूवोक्त कल्पित घटना को कहकर उत्तर देता। तब कोई भव्यजन कहने लगते-"निःस्पृह मुनि की देशना से कौन प्रतिबोधित नहीं होता? इसमें आश्चर्य ही क्या है? पूर्व में भी सुना गया है कि शास्त्र में कालकुमार- दृढ़प्रहरी-चिलातीपुत्र- धनसंचयश्रेष्ठी आदि के द्वारा कुकर्म में रत, कुमार्ग के पोषक, कुमति से वासित अन्तःकरणवाले, सप्तव्यसन के सेवन में प्रवीण, महा-निष्ठुर परिणामवाले भी वे मुनि की देशना से जागृत हुए और उसी भव में जिनधर्म की आराधना करके चिदानंद को प्राप्त हुए, तो इसका तो कितना दोष है? केवल कृपणता तो थी। वह मुनि के वचनों से चली गयी। यह धन्य है कि इस प्रकार की जन्म से लगी हुई कृपणता चली गयी। हम लोगों की तो इस प्रकार की मति कब होगी?'- इस प्रकार से स्तुति करने लगे। कोई कहने लगा-"इसका आयुष्य-क्षय नजदीक आ गया दिखाई पड़ता
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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