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________________ धन्य-चरित्र/201 वह बोला - "हे मूर्खराज ! कैसे मेरा भाग नहीं लगता? क्योंकि तुम और मैं दोनों राजसेवक हैं। राजा के द्वारा एक ही कार्य करने के लिए भेजे गये हैं । वहाँ जाते हुए जो कुछ भी लाभ या हानि होती है, वह दोनों के द्वारा समान रूप से ग्राह्य और सह्य है। अतः एक ही कार्य में निर्दिष्ट सेवकों के द्वारा जो प्राप्त किया जाता है, वह सब विभाजित करके ही ग्रहण किया जाता है - यह राजनीति क्या तुम भूल गये ? अतः मैं इसे तुम्हारे मस्तक पर हाथ देकर आधा भाग करके ग्रहण करूँगा । तुम किस निद्रा में सोये हो? क्या यह संसार मनुष्यों से रहित हो गया है, जो कि तुम्हारा कहा हुआ ही होगा? यदि धन का विभाग करके दोगे, तो हम दोनों की प्रीति उत्तम और अचल रहेगी, अन्यथा तो "पानेऽसमर्थों विकर्णे तु समर्थ" इस न्याय से राजा के आगे निवेदन करके पूर्व संचित द्रव्यादि सहित ही अब इस धन को ग्रहण करूँगा और तुम्हें कारागार में डलवाऊँगा । अतः मेरा आधा भाग मुझे दे दो ।" इस प्रकार के उसके कथन को सुनकर उसने सोचा- "निश्चय ही धन नहीं दिये जाने पर यह उपाधि करेगा और यह अपरिमित धन इसको मैं कैसे दे सकता हूँ? अगर इसको मार डालूं, तो यह धन मेरा ही रहेगा। दूसरा कोई भी नहीं जान पायेगा । राजा के पूछने पर राजा को कह दूँगा कि मार्ग में आते हुए जंगल से सहसा बाघ सामने आ गया, उसने उसको खा लिया, मैं भागकर आ गया - इस प्रकार उत्तर दे दूँगा । अन्य तो कोई जानता नहीं है, जो कि कहेगा । अतः इसके मरने से मेरा चिन्तित अर्थ सफल हो जायेगा ।" इस प्रकार विचार करके लाल-लाल आँखें करके गाली देते हुए उसको मारने के लिए म्यान से तलवार निकालकर "मेरे धन पर तुम्हे लोभ आ गया है, तो अब तैयार हो जाओ। धन देता हूँ।" इस प्रकार बोलते हुए तलवार हाथ में लेकर दौड़ा। दूसरा भी उसको इस प्रकार से सामने आते हुए देखकर क्रोधपूर्वक कोश से खड्ग निकालकर गालियाँ बकता हुआ दौड़ा। दोनों के द्वारा ही दौड़ते हुए आमने-सामने मिलते ही एक साथ रोषवश एक-दूसरे के मर्म - - स्थान पर घात - प्रतिघात किया गया। मर्म-घात से दोनों ही भूमि पर गिर पड़े और अत्यधिक तेज प्रहार के कारण घड़ी - मात्र में ही मरण को प्राप्त हुए । तब कुंज में स्थित लक्ष्मी ने सरस्वती को कहा - "देखो, धन को चाहनेवालों का चरित्र ! आगे देखो कि अब क्या होता है? " दिन की दो घड़ी शेष रहने पर निःस्पृह लिंग के धारक नग्न क्षपणक (क्षुल्लक मुनि) हाथ में कमण्डल लिए हुए मार्ग पर आ रहे थे। उन्होंने उसी शिला को सूर्य की किरणों से चमकते हुए देखकर मन में विचार किया - "इस महावन में सूर्य - किरण के समान चमकनेवाली वस्तु क्या है ? इस विचित्रता को देखता हूँ ।" इस प्रकार कौतुक बुद्धि से उसके सम्मुख गये । शिला के पास जाकर उसके एक देश को देखा। हाथ से बालुका को हटाकर देखा, तो अपरिमित परिमाण में स्वर्ण को |
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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