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________________ धन्य - चरित्र / 198 मौनान्मूकः प्रवचनपटुर्वातुलो जल्पको वा, धृष्टः पार्श्वे वसति च सदा दूरतस्त्वप्रगल्भः । क्षान्त्या भीरुर्यदि न सहते प्रायशो नाभिजातः, सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः । । अर्थात् गरीब अगर मौन रखता है, तो उसे गूंगा कहा जाता है। प्रवचन पटु हो, तो वाचाल या गप्पें मारनेवाला कहा जाता है। सदा पास में रहे, तो धृष्ट कहा जाता है और दूर रहे, तो अभिमानी कहा जाता है। क्षमा धारण करे, तो कायर कहा जाता है और सहन नहीं करता, तो अकुलीन कहा जाता है। इस प्रकार सेवाधर्म परम गहन तथा योगियों के द्वारा भी अगम्य है । सभी लोग मुझे प्राप्त करने के लिए विविध उपायों द्वारा उद्यम करते हैं, अति दुष्कर क्रियाओं द्वारा साध्य कार्यों को भी उत्साहपूर्वक करते हैं, अगर वे कार्य पापोदय से सिद्ध नहीं होते हैं, तो भी उन्हे नहीं छोड़ते हैं। सैकड़ों-हजारों बार भी असफलता पाकर भी, महाकष्ट पाकर भी, प्राणों को संकट में डालकर भी मुझे प्राप्त करने की इच्छा नहीं छोड़ते हैं । यद्यपि मैं प्रतिदिन अनेक अवाच्य, असह्य, निंदनीय कष्टों को देती हूँ, फिर भी मुझसे पराङ्मुख नहीं होते हैं। मेरे सानुकूल ही देखे जाते हैं। एक द्रव्यानुयोग से गर्भित आध्यात्मिक धर्म - शास्त्र को छोड़कर प्रायः जो कोई भी शास्त्र संदर्भ हैं, वे मेरे उपायों और मेरे विलासों से ही ग्रथित हैं। मुनि को छोड़कर मेरे योग्य पुरुषार्थ को सभी संसारी सेवते हैं। कहा भी है वयोवृद्धास्तपोवृद्धा ये च वृद्धा बहुश्रुताः । ते सर्वे धावृद्धानां द्वारे तिष्ठन्ति किङ्कराः । । अर्थात् जो वय से वृद्ध हैं, जो तप से वृद्ध हैं और जो बहुश्रुतों से वृद्ध हैं, वे सभी जन धन से वृद्ध के द्वार पर नौकरों की तरह खड़े रहते हैं । ज्यादा क्या कहूँ? मरण के समय भी अपने धन को प्रकाशित नहीं करते । मेरी इच्छा को नहीं छोड़ते। अगर तुम नहीं मानती हो, तो मैं तुम्हें प्रत्यक्ष दिखाती हूँ । सभी संसारी दस प्राणों से बंधे हुए जीते हैं। उनका ग्यारहवाँ प्राण उपचार से बाह्य धन ही है। उस बाह्य धन-प्राण के लिए कोई आभ्यन्तर दस प्राणों का त्याग करते हैं, पर द्रव्य का नहीं और कुछ तो मेरे रूपयों के ऊपर उगे हुए वृक्ष का सह रूपान्तरित पुष्प आदि के द्वारा प्रफुल्लित करते हैं । जहाँ-जहाँ मेरा रूप होता है, वहाँ देव भी बिना बुलाये चले आते है। हे सुभगे ! मेरे साथ आओ। तुम्हे कौतुक दिखाती इस प्रकार कहकर वे दोनों वहाँ से रवाना हुई। नगर से सवा योजन आगे आने पर एक सघन झाड़ी में बैठ गयीं । तब लक्ष्मी ने देवमाया से 108 गज लम्बी तीन हाथ ऊँची इस प्रकार की श्रेष्ठ जातिवाले सुवर्ण की एक शिला की विकुर्वणा की । उस शिला को बालुका में
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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