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________________ धन्य-चरित्र/182 उसके इस प्रकार कहने पर नहीं देने की इच्छा से परिकर्मित मागध के द्वारा अन्दर की बात ज्ञात कर ली गयी, फिर भी उसने विचार किया-'मेरा इसके साथ कलह करना उचित नहीं है, क्योंकि 'मैं उसे प्रसन्न करके भोजन लाऊँगा'-इस प्रकार की प्रतिज्ञा ग्रहण करके यहाँ आया था। कलह करने से उस प्रतिज्ञा की हानि होगी। इसने पुनः ‘कल दूंगा'-इस प्रकार कहा है, बिल्कुल मना तो नहीं किया है। अतः इसके पीछे लगकर रोज माँग-माँगकर इसे खेदित कर दूंगा। फिर कितने समय तक मुझे प्रत्युत्तर देगा? अन्त में यही थककर मुझे कुछ न कुछ दे देगा। अथवा तो लोक-लज्जा से ही सही-मेरा कार्य जरूर हो जायेगा। देखता हूँ-इसके या मेरे पूर्व-कर्मों का क्या परिणाम आता है? कौन हारता है?" __इस प्रकार विचार करके प्रत्येक दिन आशीर्वाद-वचन कहकर भोजन की याचना करने लगा। वह सेठ भी प्रथम दिन कहे हुए वचन रोज दोहराने लगा। तब एक दिन मागध ने कहा। “कल कब होगा?" धनकर्मा ने कहा-"अभी तो आज है, कल कहाँ है? अतः कल दूँगा।" यह कहकर उसे भेज दिया। इस प्रकार प्रतिदिन याचना करते हुए अनेक वर्ष बीत गये। पर धनकर्मा ने कुछ भी नहीं दिया। बन्दी भी थककर निराश होता हुआ विचार करने लगा-'यह कृपण तो किसी उपाय से भी व्यय नहीं करता। पर किसी भी उपाय से मुझे तो इससे व्यय करवाना ही है, क्योंकि जल खींचनेवाले यन्त्र को बिना आवर्त किये हुए कूप से जल खींचा जा सकता है? नीति में भी कहा है-'शठ के प्रति शाठ्यता करनी ही चाहिए। क्योंकि वक्रशील स्वभाववाले के द्वारा जबरन सदाचार करवाया जाता है। जब तक धनुष खींचकर धारण किया हुआ रहता है, तभी तक सेवक सीधे रहते हैं, अन्यथा नहीं। इस कृपण शिरोमणि को किसी देवता आदि की सहायता के बिना अपने वश में नहीं किया जा सकता। अतः 'लाठी टेढ़ी होने पर वार भी वक्र ही करना चाहिए'-यह लोकोक्ति सत्य साबित करनी चाहिए। अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा के लिए किसी भी उपाय से इसकी लक्ष्मी को प्राप्त करके त्याग-भोग विधान के द्वारा कृतकृत्य करूँगा। अतः प्रतारणी विद्या को साधकर अपने इच्छित कार्य को करूंगा।" इस प्रकार विचार करके करोड़ों के धन की इच्छावाला वह मागध चण्डिका देवी के मन्दिर में गया। उस देवी को नमस्कार करके "आपके प्रसाद से मेरा कार्य सिद्ध होवे'-इस प्रकार कहकर सावधान मनवाला होकर वह मागध विद्या-आराधन के लिए "इच्छित को पूर्ण करूँगा या तो शरीर को ही नष्ट कर दूंगा' इस प्रकार मन को निश्चल बनाकर विनयसहित इक्कीस उपवास विधिपूर्वक किये। इस प्रकार उसके द्वारा मौन-तप-मन्त्र-जाप-होमादि बहुत सी आराधना के कृत्यों द्वारा वह चण्डिका देवी प्रसन्न हो गयी। वह प्रत्यक्ष होकर मागध को बोली-“हे वत्स! मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूँ। जो चाहिए, वह माँग लो।"
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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