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________________ धन्य-चरित्र/17 जाती है, पर समूह की शक्ति देखो कि तृणों के समूह द्वारा वही पानी रोक लिया जाता हैं। पुरुषों द्वारा मेल-मिलाप के स्वभाव ये युक्त होकर कहीं भी रहना भविष्य के लिए श्रेयस्कर होता है। अपने कुटुम्ब के साथ तो विशेष रूप से अत्यन्त स्नेह के साथ रहना अत्यन्त श्रेयस्कर जानना चाहिए। अन्यथा तो विरोध का फल विरोध ही होता है। यश-धनादि की वृद्धि नहीं होती है। जैसे-तुषों के द्वारा परित्यक्त चावल कभी नहीं उगते। और भी, मनुष्य निर्धन होते हुए भी अपने स्नेहिल परिजनों से घिरा हुआ ही शोभा देता है। छिद्रों से रहित वस्त्र ही बाजार में मूल्य को प्राप्त होता है। धन-परिग्रहवाले गृहस्थों के अपने घर में रहते हुए तब तक ही प्रतापधन-गौरव-पूजा-यश-सुख-सम्पदा-ज्ञातिजन आदि महत्त्वों की वृद्धि होती है, जब तक अपने कुल में क्लेश उत्पन्न नहीं होता। राजा आदि के द्वारा मान्य होने से दूसरों द्वारा अपरिभूत भी मनुष्य अपने कुटुम्ब-क्लेश के कारण कुछ ही दिनों मे क्षीण हो जाता है, जैसे-राजमान्य महासैनिक भी राजयक्ष्मा (टी.बी.) रोग के कारण थोड़े ही दिनों मे क्षय को प्राप्त हो जाता है। अतः हे पुत्रों! यदि पुत्र-पौत्र आदि की वृद्धि होने पर अगर क्लेश को रोकना शक्य न हो, तो तुम सब अलग-अलग रहना, पर दुष्टता को हृदय में न पनपने देना। मैंने तुम चारों के हित के लिए तुम्हारे नामों से अंकित समान विभागवाले चार कलश घर के चारों कोने में गाड़ दिये हैं। जब तुम अलग-अलग रहना चाहो, तब अपने-अपने नाम के अनुसार उन्हें ग्रहण कर लेना। पर आपस में क्लेश मत करना, क्योंकि उन चारों कलश में समान धन है। उनमें थोड़ा-सा भी न्यूनाधिक नहीं है, क्योंकि मुझे तुम चारों ही अपने चार अंगों की तरह समान रूप से प्रिय हो। मेरे मन मे कुछ भी पंक्ति भेद नहीं है।" इस प्रकार अपने पुत्रों को तीन प्रकार से शिक्षा देकर सत्त्वशाली वह समस्त जीवों को तीन प्रकार से क्षमा करके अरिहन्त आदि की शरण लेकर भवचरम प्रत्याख्यान के द्वारा आयु पूर्ण करके देव के रूप में उत्पन्न हुआ। उसके मरण के बाद की दैहिक क्रियाएँ आदि करके उसकी शिक्षा को ग्रहण करके राम-काम आदि चारों भाई स्नेह-सिंधु की तरह कितने ही समय तक एक ही घर में रहे। कुछ समय बीत जाने के बाद पुत्र-पौत्रादि सन्तति-सन्तानें बढ़ जाने से परस्पर क्लेश बढ़ जायेगा, यह सोचकर चारों ने अलग-अपने घर में रहने का निर्णय लिया। तब उन्होंने प्रसन्न वदन से पिता द्वारा चारों कोनों में स्थापित चारों कलश निकाले, क्योंकि बालक का भी धन की प्राप्ति में आलस नहीं होता। सबसे बड़े पुत्र के नामांकित कुम्भ में स्याही का पात्र, कलमदानी, लिखने के लिए प्रत तथा लेखनी
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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