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धन्य-चरित्र/170 अश्वों और ग्रामों को विभक्त करके अपने सहोदरों को हर्षपूर्वक दे दिये। जो कीमत वस्तुएँ सुवर्ण, रत्नादि थे, वे अपने पिता को समर्पित कर दी।
पुनः कौशाम्बी में शतानीक के पास जाकर कहा-'मैं किसी कार्य से राजगृह जाता हूँ, अतः आपको मेरे कुटुम्ब का ध्यान मेरी तरह ही रखना होगा।"
इस प्रकार राजा को कहकर तथा पूछकर धन्य राजगृह की ओर चला। दोनों पत्नियों को साथ लेकर कुछ खास जनों के साथ मार्ग में अविच्छिन्न रूप से प्रयाण करते हुए कुछ ही दिनों में लक्ष्मीपुर नामक नगर को प्राप्त हुआ।
उस नगर में संपूर्ण क्षत्रियों का शिरोमणि राजगुणों से अलंकृत जितारि नाम का राजा राज्य करता था। जिसके राजा के शान्ति (क्षमा त्र शान्ति) का त्याग करने को तत्पर होने पर शत्रु भी पृथ्वी (क्षमात्र पृथ्वी) का त्याग करने को तत्पर हो जाया करते थे। उस राजा के गीत-कला में कुशल गीतकला नाम की पुत्री थी।
एक बार वह कुमारी वसन्त-उत्सव की क्रीड़ा के लिए सखीवृन्द से घिरी हुई उद्यान में गयी। वहाँ वह खेल-खेल में जलक्रीड़ा, फूलों को चुनना, गेंद उछालकर खेलना आदि क्रीड़ाओं के द्वारा युवाओं के मन को विभ्रम करनेवाली ग्राम राग में मनोहर मधुर गीतों को गाने लगी। उसके गीत की मधुरता से आकृष्ट श्रोतेन्द्रिय के परवश हरिणियाँ उसके चारों ओर आकर खड़ी हो गयीं। मानो अद्भुत हाव-भाव-विभ्रम-कटाक्ष आदि से रूपवती नारी के प्रति कामुक दृष्टिवाले विवश हो गये हों। तब उस मृगनयनी कुमारी ने उनमें से एक हरिणी के गले में कौतुक से अपना सतलड़ा हार डाल दिया। वह हरिणी गीत के रुक जाने पर भाग गयी। राजकुमारी भी अपने महलों में लौट आयी। आकर के पिता को कहा-'हे पिताश्री! मेरी एक प्रतिज्ञा सुनिए। आज मेरे द्वारा गीत-कला से आकृष्ट एक हरिणी के गले में हार पहनाया गया है। जो पुरुष अपनी गीतकला से उसी हरिणी को आकृष्ट करके, उसे बुलाकर उस मृगी के कंठ से हार ग्रहण कर लेगा, वही मेरा पति होगा।"
उसकी वह प्रतिज्ञा सर्वत्र नगर में विख्यात हो गयी, क्योंकि अद्भुत वार्ता जल में तेल-बिन्दु की तरह विस्तार को प्राप्त होती है।
तब धन्य जितारि राजा की पुत्री की प्रतिज्ञा को जनमुख से सुनकर चित्त में चमत्कृत होते हुए परिवार सहित नागरिकों की समृद्धि को देखते हुए राजा के समीप गया। राजा ने भी भाग्यसूर्य को आया हुआ देखकर अत्यधिक आदर-सत्कारपूर्वक अपने आसन पर हर्षपूर्वक बैठाया। फिर मार्ग-गमन की कुशल-क्षेम पूछते हुए किसी तरह वह प्रतिज्ञा की बात निकाली। उसको सुनकर धन्य ने कहा-'हे महीनाथ! यदि गीतकला से आकृष्ट हरिणी आतोद्य आदि शब्दों को सुनकर भयभीत होती हुई कहीं चली जाती है, तो उस गीत-कला में क्या अद्भुतता है? ऐसी गीतकला तो निष्फल ही है। जब मृदंग-भेरी–भाङ्कार आदि के द्वारा गीत से आकृष्ट वह मृगी लोगों से व्याप्त इस नगर के अन्दर आती है, तभी वह गीतकला पूर्ण प्रशंसनीया होती है।"