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धन्य-चरित्र/159 सम्बन्ध के अभिमान से मेरा पक्ष लेंगे, क्योंकि तिर्यंच भी अपनी जाति का पक्ष लेते हुए दिखायी देते हैं। तो ये तो मनुष्य हैं। इस प्रकार विचार करके भाग्य से दग्ध वह धनसार कौशाम्बी में महाजनों से संकुल चतुष्पथ में जाकर वहाँ रहे हुए व्यापारियों के सामने बिल्कुल दीनता को धारण करते हुए उनको अपने दुःख का वृत्तान्त कहा।
धनसार के कथन को सुनकर बड़े-बड़े वणिकों ने कहा-'यह तो असम्भव है, क्योंकि इस धन्य ने पहले कभी भी अन्याय का आचरण नहीं किया। और भी, आबाल-वृद्ध में धन्य परनारी के सहोदर के रूप में विख्यात है। वह ऐसा कैसे कर सकता है?"
फिर भी दूसरे सभ्यजनों ने अपनी प्रतीति करने के लिए धनसार से पुनः पूछा। धनसार ने भी जो कुछ घटित हुआ, वह सब सच-सच बताया। तब वे सभ्य परस्पर कहने लगे-'यह वृद्ध असत्य नहीं बोलता, क्योंकि यह अंतरंग दुःख-ज्वाला से तप्त है, अतः सत्य ही बोलता हुआ प्रतीत होता है। यह तीन प्रकार के दुःख से संतप्त होकर बोल रहा है। अन्यथा इस प्रकार के राजकीय असत्य को चतुष्पथ में कहने में कौन समर्थ हो सकता है? बिना अंतरंग दाह के कोई भी बोलने में समर्थ नहीं है। अतः वृद्ध सच्चा है।"
तब वे सभी व्यापारी किंकर्त्तव्यमूढ़ होते हुए वृद्ध को कहने लगे-'हे वृद्ध! अब हम क्या करें? जिस किसी के आगे यह बात करेंगे, वह जाकर राज्याधिकारियों को कह देगा। पर कोई भी सत्य नहीं मानेगा। बल्कि हमें उपालम्भ ही मिलेगा कि क्या आप लोगों की मति भ्रष्ट हो गयी है, जो कि इस प्रकार बोलते हो?' पर आ पड़े इस विषम दुःख को सुनने में भी हम समर्थ नहीं हैं। अतः जो होना है, हो जाये। न्याय को जाननेवाले धन्य को जरूर कहेंगे। यह कुनीति कल्याणकारिणी नहीं है। आज तो इस बिचारे गरीब की स्त्री रख ली, कल किसी अन्य की रख लेंगे। जो कोई दुष्ट राजा होता भी है, तो वह प्रजा की धन आदि वस्तु को ग्रहण करता है, पत्नी को नहीं। ऐसी महा अनीति करने पर ग्राम में कौन रहेगा?"
इस प्रकार मन्त्रणा करके सभी एक साथ मिलकर धन्य के घर गये। धन्य को प्रणामादि करके यथास्थान बैठ गये। वे सभी भय से कम्पित होते हुए बहुत देर विचार करने के बाद बोले-'स्वामी! जैसे सूर्य की सन्निधि में अन्धकार का प्रसार न भूत में हुआ, न ही भविष्य में होगा। महा-समुद्र के ऊपर उड़ते हुए रज न देखी गयी, न ही देखी जायेगी। चन्द्र की किरणें कभी भी न तापप्रद हुई और न ही होंगी। उसी प्रकार आप में अनीति न कभी थी और न ही कभी होगी। इस प्रकार तीन ही काल में हम आबाल-गोपाल को विश्वास है। कदाचिद् रवि पश्चिम में उग सकता है, ध्रुव तारा भी कल्पान्त वात से प्रेरित होकर भी अध्रुवता को धारण कर ले, मेरु पर्वत भी कदाचित् हवा की तरह चलित हो जाये, कभी सिन्धु भी मरुस्थल के समान निर्जल बन जाये, नित्य चलनेवाली वायु भी कभी स्थिरता को प्राप्त हो जाये, कभी