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________________ धन्य-चरित्र / 153 पूछती हो? मेरे दुर्भाग्य से पूछो। कर्मोदय से जनित मेरे दुःखों की कहानी को मत पूछो, बल्कि मेरे दुःखों की कहानी को सुनकर तुम भी दुःखी हो जाओगी। अतः नहीं कहना ही श्रेष्ठ है ।" सौभाग्यमंजरी ने कहा - 'सखी! तुमने सत्य ही कहा है। पर हर किसी के आगे नहीं करना चाहिए। वास्तविक प्रीति रखनेवाले के आगे तो कहना ही चाहिए । जैसे कि मैं भी जानती हूँ कि मेरी सखी ने इतने समय तक दुःख का अनुभव किया है । अतः जो अनुभूत किया है, वह बताओ ।" तब उसके अति आग्रह को जानकर सुभद्रा ने कहा- सखी! राजगृह नगर में गोभद्र श्रेष्ठी के पुत्र, समस्त भोगियों के स्वामी, तीन जगत में जिनके तुल्य कोई भी पुण्यवान नहीं है, जो नित्य सुवर्ण - रत्न से युक्त आभरणों को कचरे की तरह कचरे के डिब्बे में डालते हैं, ऐसे शालिभद्र इभ्यवर का नाम तुमने भी लोकवार्ता में कभी सुना होगा । उस भाग्यशाली की भगिनी मैं भद्रा माता की कुक्षि से पैदा हुई तथा गोभद्र इभ्यवर की पुत्री हूँ, जिनके समान पुत्र - वत्सल पिता जगत में दूसरा कोई नहीं है । मुझे यौवन वय में आयी हुई देखकर तुम्हारे पति के समान आकार - रूपवाली लक्ष्मी से लक्षित, नाम भी तुम्हारे पति के समान, सौभाग्य-सम्पदा के धाम, श्रेष्ठी पुत्र के साथ मेरी सगाई कर दी। कृष्ण के साथ लक्ष्मी की तरह मैं परणायी गयी। पति के पावन सम्बन्ध को प्राप्त कर मैं भी हर्ष से कुल में दीप्त भोगों में मग्न रहने लगी । प्रबल पुण्य की अधिकता के उदय से समय बीतते देर नहीं लगी ।" हे सखी! क्या वर्णन करूँ? जिसके द्वारा भोगा गया, वही जानता है। अपनी द्वारा अनुभूत सुख अपने मुख से कहना उचित नहीं है। इस प्रकार के मेरे पति के दिनोंदिन बढ़ते राज्य सम्मान और कीर्ति को देखकर तीनों ज्येष्ठ भाई ईर्ष्या से जलने लगे। जिस किसी के आगे मेरे पति के असद् दोषों को कहने लगे। तब वे ही लोग उन भाइयों के आगे मेरे पति के गुणों का वर्णन करके उनका मुख बन्द कर देते थे। तब वे मन ही मन और ज्यादा जलने लगे। तब मेरे पति क्लेश के द्वारा कृत मलिन आचार और इंगित - आकार के द्वारा अपने भाइयों की मानसिक स्थिति का अवलोकन कर स्वयं सज्जन स्वभाव के होने के कारण मुझे और समग्र लक्ष्मी को छोड़कर कहीं देशान्तर में चले गये। मेरे पति के चले जाने से उनके पुण्य से नियन्त्रित होकर अन्यत्र कहीं नहीं जानेवाली लक्ष्मी भी घर से चली गयी । तालाब से पानी चले जाने से क्या पद्मिनी तालाब में स्थित रहती हैं ? थोड़े ही दिनों में घर इस प्रकार लक्ष्मी-विहीन हुआ कि घर के मनुष्यों की उदर- - पूर्ति जितना अन्न भी न बचा। अतः अपने घर के मनुष्यों के निर्वाह के लिए मेरे श्वसुर राजगृह से निकल गये । वहाँ मेरी दो सौत हैं-एक राजपुत्री, दूसरी महा-इभ्य की पुत्री । राजगृह से निकलने पर मेरे श्वसुर ने उन्हें आज्ञा दी कि 'हे बहुओं! तुम अपने-अपने पिता के घर
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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