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________________ धन्य-चरित्र/149 इक्षुक्षेत्रं समुद्रस्य योनिपोषणमेव च। प्रसादो भूभुजां चैव सद्यो घ्नन्ति दरिद्रताम् ।। अर्थात् समुद्री किनारे पर रहे हुए गन्ने के खेत का समुद्र के जल द्वारा ही पोषण होता है, वैसे ही राजा की समीपता से दरिद्रता का शीघ्र ही नाश होता है।" पुनः तीसरे दिन आकर धन्य सभासदों सहित वृक्ष के नीचे स्थित हुआ। थोड़ी ही देर में पूर्व संकेतित पुरुषों द्वारा द्राक्षा, खजूर, अखरोट आदि खाद्य-पदार्थ धन्य के आगे लाकर रखे गये। धनसार तो धन्य के आगमन-मात्र से पहले ही वहाँ आकर प्रणाम करके खड़ा था। तब धन्य ने वृद्ध को कहा-'यह द्राक्षा आदि खाद्य ग्रहण करो, क्योंकि वृद्धों को कोमल भोजन ही मुख में लगता है। कहा भी है कि बुढ़ापा और बचपन समान ही होते हैं-ऐसा लोक में कहा जाता है।" तब धनसार ने भी 'जैसी आपकी मरजी" इस प्रकार कहकर अन्य मजदूरों पर दृष्टि डाली। तब धन्य ने हँसते हुए कहा-'क्या इन सभी को देने का मनोरथ है? यही तो बड़े जनों की पहचान है कि जो कोई भी एक जगह निवास करते हैं, वहाँ उन सभी को देकर ही स्वयं ग्रहण करते हैं। यही उत्तम कुल की पहचान भी है।" इस प्रकार कहकर धन्य ने सभी के मध्य धनसार के उत्तम कुल का ज्ञान भी करवा दिया। फिर सभी मजदूरों को तथा विशेष रूप से धनसार को बहुत सारा दिया। उसके ऊपर भी ताम्बूल आदि देकर वापस चला गया। इस प्रकार पुण्य के समान उचित खाद्य प्राप्त करके प्रसन्न होते हुए मजदूर परस्पर कहने लगे-'यह वृद्ध पुण्यबली है। अनजान होते हुए भी राजा इसे देखने-मात्र से बहुत मान देता है। इस वृद्ध के प्रभाव से ही पहले कभी न खाये हुए खाद्य को खाने का अवसर प्राप्त हुआ। जैसे महादेव के पूजन में नपुंसक भी पूजा जाता है। तब से सभी कर्मकर उस वृद्ध और उसके परिवार के आज्ञावर्ती हो गये। इस प्रकार धन्य रोज वृद्ध की शुश्रूषा की इच्छा से वहाँ आता था। वहाँ कुछ समय ठहरकर किसी दिन केले, किसी दिन बीजोरा फल, किसी दिन नारियल के टुकड़ों में शर्करा के खण्ड मिलाकर, कभी सन्तरे, कभी अंजीर फल, कभी पके हुए इक्षु-खण्ड और उसके रस के घड़े सभी को देता था, पर विशेष करके वृद्ध और उसके परिवार के लिए देता था। एक दिन उसने वृद्ध से कहा-'तुम्हारे वस्त्र जीर्ण हो गये हैं। धनसार ने कहा-'स्वामी हम निर्धन हैं। कितना व्यय कर सकते हैं? और खर्च के बिना वस्त्र कहाँ से आये? और भी, मेरे अपने लिए नया वस्त्र लाने से पहले पूरे परिवार के लिए वस्त्र लाने होंगे। अतः जैसे-तैसे कार्य चला लेता हूँ। तब धन्य ने धनसार और उसके परिवार के स्त्री-पुरुषों के योग्य वस्त्र
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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