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________________ धन्य-चरित्र/131 दान की महत्ता में शालिभद्र की कथा इधर इसी मगध देश में धन-धान से समृद्ध, इन्द्रिय समूह से सुख देनेवाला शालिग्राम नामक ग्राम था। वहाँ सांख्य-मत के प्रवर्तक कपिल मुनि के द्वारा रचित की तरह, सांख्य मत में ही प्रसिद्ध महान शब्द के ही अपर नाम रूप सत्व-रज-तमो गुण से युक्त प्रकृति और स्वभाववाली, सत् कार्य करनेवाली, भद्रिक स्वभाववाली कोई एक धन्या नाम की स्थविरा रहती थी। उसके अत्यधिक दारिद्र्य में द्रव्य के संगम की तरह संगम नामक पुत्र था, जो सुमुख तथा नम्र प्रकृतिवाला था। वह धन्या सेठ लोगों के घर खाण्डना-पीसना आदि कार्य करती थी और उसका पुत्र संगम उनके बछड़ों को चराया करता था। इस प्रकार कैसे भी करके दोनों निर्वाह करते थे। एक बार किसी पर्व के बड़े दिन संगम गाय-बछड़ों को लेकर जंगल में चराने लगा, तब वहाँ दूसरे आये हुए बच्चे परस्पर बातें करने लगे। एक ने दूसरे से कहा-"आज तुमने क्या खाया?" उसने कहा-"खीर खायी।" अन्य ने भी कहा-“मैंने भी खीर खायी। आज पर्व का दिन है। अतः केवल खीर ही खानी चाहिए, अन्य कुछ भी नहीं।" तब उन लोगों ने संगम से भी पूछा-"तुमने क्या खाया?" संगम ने कहा-"(कुकस्-ढ़ौकल आदि) तुच्छ भोजन किया है।" यह सुनकर वे लोग निन्दा करने लगे-"आज पर्व के दिन इस प्रकार के रस से रहित खाना कैसे खाया? आज तो केवल खीर ही खानी चाहिए।" तब बच्चों की बातें सुनकर संगम ने घर आकर अपनी माता को प्रणाम करके कहा-“हे माता हितकारिणी! मुझे अभी घृतयुक्त खीर-खाण्ड का भोजन खिलाओ।" अपने पुत्र के वचनों को सुनकर वह वृद्धा अत्यन्त रोने लगी-"अपने इकलौते पुत्र के खीर जितने मनोरथ को भी पूरा करने में मैं गरीब समर्थ नहीं हूँ। अतः मेरे जीवन को धिक्कार है।" __ माता को रोते हुए देखकर पुत्र भी जोर-जोर से रोने लगा। उन दोनों का रूदन सुनकर उनके दयालु पड़ोसी एकत्र होकर रोने का करण पूछने लगे। तब रोती हुई वृद्धा ने कहा-“हे पुण्यशालिनी बहिनों! यह मेरा पुत्र कभी भी खाने-पीने की वस्तुएँ नहीं माँगता है। जैसा मैं खिलाती हूँ, वैसा खा लेता है। कभी भी हठ नहीं करता है। आज किसी के घर में बच्चों को खीर का भोजन करते हुए देखकर मुझसे खीर माँग रहा है। मैं तो धनहीन हूँ, खीर का भोजन धन के बिना कहाँ से लाऊँ, अतः रो रही हूँ।" __उसके इस प्रकार के दीन-वचनों को सुनकर एक पड़ोसन बोली-“मैं दूध देती हूँ।"
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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