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धन्य-चरित्र/5 भी है
तेजो-लज्जा-मति-मानमेते यान्ति धनक्षये। अर्थात तेज, लज्जा, बुद्धि व स्वाभिमान–से सभी धन–क्षय होने पर चले जाते हैं।
इसने तुच्छ बुद्धि के द्वारा व्यवसाय करके कानों को सुखद लगनेवाली कीर्ति के लिए दान-पुण्य करके सारा द्रव्य व्यय कर दिया, पर अपने घर के निर्वाह की चिन्ता नहीं की। अब धनहीन होकर हमारे पास चला आया है। क्या हमारे पास धन की खदानें हैं? क्या देकर भूल गया, जो कि हमारे पास अभिनय करने चला आया? जो कुछ भी हम देंगे, वह भी दान-पुण्य तथा खाने-पीने में उड़ाकर फिर हमारे पास चला आयेगा। जामाता तथा यम का पेट भरने में आज तक कोई भी समर्थ नहीं हुआ। इन दोनों को सर्वस्व का दान देने पर भी ये तृप्त नहीं होते। अतः इसकी तरफ ध्यान नहीं देना है। जैसे आया है, वैसे ही चला जायेगा।" इस प्रकार विचार करके सभी पराड्मुख हो गये।
गुणसार ने अपनी निपुणता से सब कुछ जान लिया। उसने विचार किया-"जो मैं अपनी स्त्री के कहने से यहाँ आया, वह मैंने ठीक नहीं किया। मेरी इज्जत ही चली गयी। कहा है कि
__ अन्तरं नैव पश्यति निर्धनस्य शबस्य च । निर्धन व शव मे अंतर नहीं होता। यह नीति वाक्य जानते हुए भी मैंने यहाँ आकर अपनी मूर्खता को ही प्रकट किया है। श्वसुर कुल में मान का मालिन्य पुरुष के लिए महान दुःख रूप होता है। पर क्या किया जाये? जो भवितव्यता है, वह हो जाये। पूर्वकृत कर्मों का ऐसा ही उदय है।"
इस प्रकार विचार करके नीचा मुख करके श्वसुर-गृह में गया। सास ने उनकी दीन अवस्था को देखकर आदर नहीं किया।" आइए! हमारी पुत्री कुशल तो है?" इस प्रकार सामान्य बात-चीत की।
तब द्वार पर मण्डपिका में पट्टी पर बैठे-बैठे उसने विचार किया-"पूर्व में जब धनिक अवस्था में मैं यहाँ आता था, तब तो स्वजन-समूह मिलकर कोस-दो कोस की दूरी तक सम्मुख आकर मिलना-भेंटना आदि करते हुए महा-आडम्बरपूर्वक घर में लाकर प्रतिक्षण सेवा में तत्पर रहते थे। अभी भी मैं तो वही हूँ, पर किसी ने आकर कुशलता तो क्या, पानी के लिए भी नहीं पूछा। अतः जिनेश्वर देव का कहा हुआ कथन बिल्कुल सत्य प्रतीत होता है कि
स्वार्थिनः सर्वे सम्बन्धिनः, विना स्वार्थमेको गुरुरेव ।
उत्कर-रूपोऽयं संसारः, तत्र सुगन्धवत्त्वं कुतः? अर्थात् संसार के सभी संबंध स्वार्थी हैं। स्वार्थ से रहित एकमात्र गुरु होते