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धन्य-चरित्र/120 से जीर्ण उद्यान में रहे हुए शुष्क काष्ठ के समान वृक्ष वसन्त के आगमन में वनों की तरह उगे हुए पुष्प-फल-पत्रों की तरह हो गये। जीर्ण-शीर्ण भी वह उद्यान नंदन वन की तरह हो गया।
प्रभात में जब वनपालक ने वन की उस अवस्था को देखा, तो हर्षित होता हुआ इधर-उधर देखने लगा। तब उसने एक साफ सुथरी की हुई जगह पर स्थित धन्य को प्रातःकाल की क्रिया-चैत्यवंदन, नमस्कार, गुणन आदि करते हुए देखा। देखकर चमत्कृत होते हुए वन-पालक विचार करने लगा-“निश्चय ही यह कोई भाग्यशाली, श्रेष्ठ देव की अनुकृति और पुण्यशाली व्यक्ति है, जो रात्रि में यहाँ रुका है। इसी के पुण्य के प्रभाव से यह शुष्क उद्यान नंदन-वन के समान हो गया है।"
इस प्रकार मन में निश्चित करके हर्षपूर्वक श्रेष्ठी के घर जाकर बधाई दी-"स्वामी! आपके उद्यान में कोई तेजस्वी पुरुष रात्रि में आकर ठहरा है। उसी के अनुभाव से शुष्क वन नंदनवन के उद्यान के समान हो गया है।"
तब श्रेष्ठी वनपालक के कथन से चमत्कृत होते हुए उस पुरुष को देखने के कौतुक से स्वयं उपवन में गया। वहाँ उद्यान में बैठे हुए धन्य को देखा। समग्र विश्व में अदभुत अभंग भाग्य-सौभाग्य के पात्र, तेजस्वी शरीर, सर्व सत् लक्षणों से पूर्ण, गुण-वृद्धिकारी, आख्यात सिद्ध धन्य को देखकर श्रेष्ठी ने विचार किया-"निश्चत ही इसी के अनुभाव से मेरा वन पल्लवित हुआ है, ऐसा जान पड़ता है, क्योंकि चन्द्रोदय के बिना समुद्र के जल का उल्लास नहीं होता।"
इस प्रकार मन में विचार करके विचक्षण श्रेष्ठी ने अनातुर धन्य को मार्ग की व आगमन की कुशल वार्ता पूछी–"हे सज्जन-जन शिरोमणि! आपके आगमन से जड़ रूप भी, निर्जीव-प्राय भी यह उद्यान नव-पल्लव निकलने के बहाने से हर्षित होकर मानो पुष्पों का मुकुट-स्वरूप बन गया है। आपके दर्शन रूपी अमृत-सिंचन से मेरे मन-नयन भी पल्लवित हो गये हैं। हमारे द्वारा पूर्व उपचित प्रबल पुण्योदय के योग से मरुस्थली में कल्प-वृक्ष की तरह आपके दर्शन का लाभ मानता हूँ। अतः हे सुभग-शिरोमणि! कृपा करके गृह आगमन के प्रयास-पूर्वक मेरे मनोरथ को पूर्ण करने का अनुग्रह करें।"
इस प्रकार अत्यधिक आग्रह करके कुसुमपाल श्रेष्ठी धन्य को अपने घर ले गये, क्योंकि माणिक्य स्व-गुणों द्वारा सर्वत्र मान-पूजा को प्राप्त होता है। फिर अभ्यंगन, उबटन, स्नान आदि सामग्री के द्वारा शरीर की शुश्रूषा करके, चन्दनादि के द्वारा अंगराग करके, घोड़े की लार से भी झीणे वस्त्र धारण करवाकर