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________________ धन्य-चरित्र/117 तुम्हारा वैक्रिय दलिकों से निष्पन्न यह शरीर अतीव स्वच्छ व पवित्र है। मेरा शरीर तो औदारिक पुदगलों से निष्पन्न होने से नित्य ही जैसे-तैसे मल-मूत्ररुधिर-अस्थि आदि से भरा हुआ होने से अत्यधिक दुर्गन्ध से युक्त तथा दुर्गछनीय है। इन दोनों का संयोग कैसे हो सकता है? ___अतः हे माता! सदाचार रूपी अंकुरों के उद्गम में मेघ की धारा के सदृश मन को वीतराग बनाकर वीतराग का स्मरण करो। जिससे भविष्य कल्याणकारी हो। कहा भी गया है कि "धर्मकार्य को सदैव उद्यमपूर्वक तथा शीघ्रता से करना चाहिए। अधर्म कार्य में उत्तम पुरुषों को गज-निमीलिका की तरह उद्यम करना चाहिए। अर्थात् अधम कार्यों में आलस करना चाहिए, क्योंकि देवों का आयुष्य भी बीत जाने पर पुनः लौटकर नहीं आता।" ___ इस प्रकार अमृत-तुल्य सुख श्री के संदेश रूप धन्य के उपदेश से राग रहित होते हुए गंगा ने कहा-“हे मेरे राग रूपी दावानल की अग्नि का शमन करनेवाले एकमात्र अम्बुद! तुम चिरकाल तक प्रसन्न रहो। हे मोहान्धकार का संहार करनेवाले दिवाकर! तुम चिरकाल तक जीओ। तुम्हारी चतुर्मुखी उन्नति हो। हे निष्कामी-शिरोमणि! तीन जगत में तुम ही धन्य हो। जो कि देवांगना द्वारा किये गये हाव-भाव से क्षुभित नहीं हुए। इसलिए हे वीरेन्द्र! अत्यधिक उत्कट, विकट, काम-सैन्य के संग्राम में अनेक कामास्त्रों के सन्निपात में भी अक्षुब्ध रहते हुए काम-बल के विजेता! तुम ही महाभट्ट हो। हे सदाचार शिरोरत्न! पृथ्वी रत्नगर्भा है-यह जो कहा जाता है, वह तुम जैसों के कारण ही कहा जाता है। हे निष्पाप! हे धार्मिक शिरोमणि! मैं भी तुम्हारे दर्शन से पवित्र हो गयी हूँ। हे दयानिधि! जल के विशाल पूर से भी नहीं बुझनेवाली मेरी कामाग्नि तुम्हारी अमृत-गुण युक्त गिरा द्वारा बुझ गयी है। हे श्रेष्ठ तत्त्वज्ञ! मैं दोनों लोक में अमित सुखदायी धर्मरत्न प्रदायक तुम्हें अभी बहुत सारे रत्न देकर भी कैसे उऋण हो सकती हूँ? कभी भी उऋण नहीं हो सकती। फिर भी इस चिंतामणि रत्न को ग्रहण करो एवं मुझे अनुगृहित करो। यह रत्न तो तुम्हारे उपकार के करोड़वें अंश जितना प्रत्युपकार करने में भी समर्थ नहीं है। पर अतिथि का आतिथेय अपने घर के अनुसार होता है। अतः कृपानिधे! तुम कृपा करके इसे ग्रहण करो।" इस प्रकार अत्यन्त आदरपूर्वक एवं आग्रहपूर्वक देने पर धन्य ने चिंता-रत्न लेकर गाँठ में बाँध लिया। तब धर्म-रंग से अनुरंजित गंगा बहुत से स्तवनों से स्तुति करके अपने स्थान को चली गयी। स्थिर सुव्रती धन्य भी राजगृह की ओर रवाना हुआ। भाग्यशाली, दान-प्रविण,
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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