________________
धन्य-चरित्र/110 इस प्रकार से चिंतन करते हुए ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से जातिस्मरण ज्ञान प्रकट हुआ। पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय होने से उसने अपने सातों ही भव देखे। जो भी सुख या दुःख अनुभूत किया था, वह दृष्टि-पथ पर आया। तब वज्र से आहत हुए की तरह क्षण भर जड़ के समान निश्चेष्ट होकर पुनः सावधान हुआ।
दीर्घ निःश्वास को छोड़ते हुए हाथ में आये हुए चिंतामणि को छोड़ने के समान शोक करने लगा-"हा! मैंने काम राग, स्नेह राग और दृष्टि राग से अंधे होकर यह क्या किया? करोड़ों चिंतामणि रत्नों से भी अधिक मूल्यवान मनुष्य भव को पाकर भी हार दिया और गहन दुर्गति के आभूषण रूप भ्रमण को अंगीकार किया। अपने अज्ञान के वशीभूत होकर बिना कुकर्म किये भी कृत कुकर्म से ज्यादा दण्ड-संकट में पड़ गया। जिससे मुझे साधन रहित दुर्गति रूपी कारागार प्राप्त हुआ। इस कारागार से मुझे कौन निकालेगा? हा! मेरी कैसी-कैसी गति हुई? इस हाथी के भव में भी बहुत से तिर्यंच पंचेन्द्रिय तथा मनुष्य आदि के घात के पापों को किया। अतः अब मेरा दुर्गति से निस्तारण कहाँ से होगा? धन्य है यह भाग्यवती! जिसने कर्म बाँध बाँधकर भी तोड़ डाले। जिसने दुष्कर्म करके भी समस्त दुःख के निवारण में कुशल एकमात्र साधु धर्म को अंगीकार किया। अतः अब इसे क्या डर? पुनः इसे धन्यवाद देता हूँ कि इसने जैसा स्नेह किया था, वैसा ही निभाया भी है। जैसे स्वयं स्नेह की बेड़ियों से आजाद हुई, वैसे ही मुझे भी स्नेह बंध से मुक्त करने के लिए आ गयी। वरना तो इस स्वार्थी संसार में महा भयंकर दशा में कौन दुःख निवारण के उपाय को करने के लिए प्रेरित हो? अतः यह शास्त्रोक्ति सत्य ही है कि
__स्वार्थिकाः संसारिणः, पारमार्थिकाः मुनयः । जगति विना मुनिं न कोऽपि निष्कारणोपकारकोऽस्ति।।
अर्थात् संसारी व्यक्ति स्वार्थी और मुनि परमार्थी होते हैं। इस जगत में मुनि के सिवाय कोई भी निष्कारण उपकारक नहीं होते। मैं भी अब इसी की शरण ग्रहण करूँ, जिससे मेरा भविष्य शुभ हो। अन्य कोई उपाय नजर नहीं आता। अतः अब यह जो भी उपाय बतायेगी, वह मुझे स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि मुझ पापी के तो दर्शन मात्र से भी पुण्यवानों के पुण्य विफल हो जाते हैं और इसके दर्शन मात्र से सर्व प्रकार से ऐहिक और पारलौकिक सिद्धि होती है। कहा भी है
पापीयानपि पापान्मुच्यते, सर्वगुणरत्नखानिः। अर्थात् भयंकर पापियों के पाप भी दूर हो जाये-ऐसी यह गुण रत्नों की