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________________ धन्य-चरित्र/107 साथ गुरु के पास जाकर, गुरु को नमन करके परिवार के साथ राजा और सुनन्दा ने विनयपूर्वक दीक्षा की प्रार्थना की। मुनि-युगल द्वारा घटना की जानकारी होने से गुरु ने उनकी प्रशंसा करते हुए परिवार युक्त राजा को तथा भव से उद्विग्न सुनन्दा को शिक्षापूर्वक दीक्षा दी। राजर्षि भी अति उत्कट भाव से हर्षयुक्त ग्रहण व आसेवन शिक्षा का अभ्यास करने लगे। सुनन्दा को बड़ी आर्या प्रवर्तिनी के पास रखा ।वह भी वहाँ श्रुताभ्यास तथा शक्ति के अनुरूप तप करने लगी। राजर्षि बारह वर्ष तक उत्कट और निरतिचार संयम की आराधना करके कर्म खपाकर केवलज्ञान प्राप्त करके अन्त में योग का निरोध करके मोक्ष में चले गये। राजा के परिकर-जनों में से कुछ मोक्ष में गये और और कुछ स्वर्ग में चले गये। कुछ मनुष्य भव प्राप्त करके मोक्ष में जायेंगे। सुनन्दा साध्वी अति वैराग्य से रंजित हृदय द्वारा उत्कट तपोबल से अवधिज्ञान उत्पन्न करके अत्यधिक आह्लाद से निरतिचार संयम का पालन करने लगी। एक बार प्रवर्तिनी के आगे पूर्वोक्त व्यतिकर बताकर कहा-“माता! उस जीव ने मेरे लिए सात-सात भव किये हैं। निरर्थक क्लेश का अनुभव करते हुए अनिवर्चनीय दुःख की खान में गिरा हुआ है। अतः यदि आपकी आज्ञा हो, तो मैं वहाँ जाकर उसे प्रतिबोधित करके दुःख की खान से उसका उद्धार करूँ।" प्रवर्तिनी ने कहा-"वत्से! तुम ज्ञान-कुशल हो। यदि तुम्हारे ज्ञान में लाभ प्रतिभासित होता है, तो वहाँ जाकर सुखपूर्वक उसे प्रतिबोधित करके धर्म प्राप्त कराओ, जिससे वह आराधक बने।" तब सुनन्दा ने महत्तरा की आज्ञा लेकर चार साध्वियों के साथ विहार किया। क्रम से सुग्राम नामक ग्राम को प्राप्त किया। गृहस्थों के पास वसति की याचना करके वहाँ चातुर्मास किया। प्रतिदिन भव्य श्राविकाओं को धर्मोपदेश द्वारा धर्मवृद्धि प्राप्त कराती थी। उसी ग्राम के नजदीक गहन पर्वत-वन में रूपसेन का जीव हाथी के रूप में उत्पन्न होकर निवास करता था। वह जब घूमता हुआ गाँव की सीमा में आता, तो सीमा पर रहे हुए लोगों में उपद्रव करता था। लोगों के पीछे दौड़ता था। कई लोग वृक्ष पर चढ़ जाते थे। कई लोग दौड़कर गाँव में चले जाते थे। कई लोग अन्य स्थान प्राप्त न कर सकने के कारण उसकी दृष्टि को ठगकर लताओं के अन्दर अथवा संकीर्ण जालों के बीच अदृश्य रूप से छिप जाते थे। अगर कोई उसके दृष्टि पथ पर आ जाता था, तो उसे सूंड से उठाकर आकाश में उछाल देता था। उससे आगे तो जैसा आयुष्य बल होता, कोई तो पीड़ा प्राप्त करके भी जीवित रह जाते थे, कोई मर भी जाते थे। किसी को मुँह
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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