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________________ धन्य-चरित्र/105 होता है अथवा कुत्ता चाण्डाल अथवा अश्व अथवा बान्धव अथवा दास होता है। शत्रु मरकर मित्र अथवा पत्नी अथवा पुत्र होता है। इसी प्रकार मित्र भी शत्रु अथवा दास अथवा सुभग अथवा दुर्भग अथवा अनिष्ट अथवा इष्ट होता है। इसी प्रकार राजा भी मरकर दास अथवा ब्राह्मण अथवा चण्डाल अथवा चक्रवर्त्ती अथवा भिखारी अथवा गधा अथवा वृक्ष अथवा कीट-पतंग या वेश्या या बाघ या हरिण या मत्स्य होता है। इस प्रकार सभी जाति के जीवों के साथ सम्बन्ध होता है। पूर्वकाल में एक - एक जीव के साथ सभी सम्बन्ध अपने जीव ने अनन्त बार प्राप्त किये हैं, वे भी हमारे जीव के साथ अनन्त बार सम्बन्ध को प्राप्त हुए हैं। कोई भी नियम नहीं है। चौरासी लाख जीवायोनि के मध्य में जीव सभी योनियों में अनन्त बार उत्पन्न हुआ है। इसी प्रकार सभी जातियों में, सभी कुलकोड़ियों में, सभी स्थानों में अनन्त बार जन्म-मरण पूर्व में किया है, कोई भी जगह नहीं है, जिसे हमने प्राप्त नहीं किया है। आगे भी जब तक भागवती दीक्षा प्राप्त नहीं करेंगे, तब तक यहाँ परिभ्रमण करते रहेंगे । राज्यादि सुख तो शरद ऋतु के बादलों की तरह अस्थिर है । भविष्य में बहुत दुःख प्रदान करनेवाला है। इस प्रकार का संसार का स्वरूप श्रीमद् जिनेश्वरों द्वारा भाषित है । इसलिए जो अच्छा लगे, वही करना चाहिए ।" मुनिराज द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर राजा, रानी व सभी निकटस्थ सभ्य वैराग्य को प्राप्त हुए । राजा स्वयं उठकर मुनि के चरणों में गिरकर बोला - "हे जगत के निष्कारण बन्धु ! हे दयानिधे! हे अनाथों के नाथ! हे अशरण के शरण ! हे समता के सागर ! अपार संसार रूपी कूप में डूबे हुए हमको आपने आकर मस्तक हिलाने - मात्र से उबार लिया है। हमारे समस्त दुष्कृत्यों का उद्धार कर दिया है। अगर आपका आगमन नहीं होता, तो हमारी क्या गति होती ? सुनन्दा भी बेर जितने मोटे-मोटे अश्रुकणों को गिराती हुई साधुओं को वंदन करके बोली - "हे दयानिधे! अभागिनी, दुःशीला, कुकर्म करने में तत्पर, अत्यधिक पाप भार से भारी मेरी क्या गति होगी? कैसे इसका प्रायश्चित होगा? किस उपाय से कर्मों का स्फोटन होगा? कृपा करके उसका उपाय रूपी प्रसाद भी देवें ।" मुनि ने कहा - "भद्रे ! तुम्हारे पाप सम्भार से भी ज्यादा पाप चारित्र ग्रहण करने से और श्रीमद् जिनाज्ञा के अनुकूल पालने से छूट जाते हैं और कल्याण प्राप्त होता है ।" तब सुनन्दा ने कहा— "स्वामी! मेरे लिए क्लेश सहन करता हुआ यह रूपसेन का जीव मृग के भव से च्युत होकर कहाँ उत्पन्न हुआ है?"
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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