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________________ धन्य-चरित्र/101 निःस्नेही हो जावे अथवा द्वेष करने लगें, अति निकट सम्बन्ध में ताड़ना आदि भी करें। उस दुःख से पीड़ित वह जीव शत्रु की तरह द्वेषी हो जावे। उस निमित्त से वह बहुतर कर्म का उपार्जन भी कर लेवे। ज्यादा क्या कहा जावे? सम्बन्ध भी त्यक्त हो जावे। अतः कहने की अपेक्षा नहीं कहना ही श्रेष्ठ है।" मुनि के इस प्रकार कहने पर सुनन्दा ने कहा-"भगवन! आपके उपदेश से सभी कर्माधीन हैं। भोगे बिना कृत-कर्मों से छुटकारा भी नहीं है। ऐसी श्रद्धा स्थिरतर चित्त में प्रविष्ट भी हो गयी है। पूर्वकृत कर्मोदय के बल से जीव कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य को करते हैं। साधक को उसमें विस्मय नहीं करना चाहिए। बल्कि अकर्तव्य का पश्चात्ताप करना चाहिए, जिससे आगे वृद्धि की प्राप्ति न हो। आपके वचन उपकार से ही यह जाना है। अतः सुखपूर्वक उस कर्मोदय जनित विपाक को कहिए।" साधु ने कहा-"कुछ भी तुम्हारे से सम्बन्धित होगा, तो उसे सुनकर अप्रीति तो उत्पन्न नहीं होगी? अगर नहीं होगी, तो ही कहूँगा। अन्यथा नहीं।" रानी ने कहा-"भगवन सुख से कहिए। अज्ञान से विलसित अपने उस दुष्कृत्य को सुनकर आपके पास से उस दुष्कृत्य के नाश का भी उपाय मिल जायेगा।" राजा ने भी कहा-“स्वामी! आपके उपदेश से-अमुक ने सुख या दुःख दिया है-यह भ्रम-स्खलना, जो चिरकाल से परिचित थी, वह दूर हो गयी है। जो जीव दुष्कृत्य करता है, वह कर्मोदय से, अज्ञान के वश से तथा कर्मोदय और अज्ञान के गौण व मुख्य भाव से यथावसर प्रवृत्त होता है। इसीलिए आपकी कृपा से राग-द्वेष की वृद्धि नहीं होगी। अतः आप खुशी से कहिए।" तब साधु ने कहा-"हे सुनन्दा! पूर्व में बचपन में महा-आवास के ऊपर सखी के साथ स्थित तुमने किसी इभ्य के घर में दूर से किसी रूप-यौवन-विनय आदि गुण से युक्त स्त्री को पति द्वारा कुछ भी झूठा अभ्याख्यान देकर कोड़े से ताड़ना देते हुए देखकर तुम्हारा पुरुष-मात्र के प्रति द्वेष उत्पन्न हुआ। यह सत्य है या असत्य?" मुनि का यह कथन सुनकर चमत्कृत होते हुए सुनन्दा ने कहा-“हे स्वामी! आपका वचन सत्य है। असत्य नहीं है।" "उस द्वेष से दु:खत होते हुए पाणिग्रहण नहीं करने की प्रतिज्ञा करने हेतु उद्धत तुम्हे सखी ने रोका। पुनः कालान्तर में यौवन वय आने पर पुनः तुम्हारे द्वारा वैसे ही किसी महा-इभ्य के आवास के ऊपर दम्पति का विलास देखकर तुम्हे तीव्र कामोदय हुआ। सखी ने तुम्हे शिक्षा देकर आवास की उपरितन भूमि
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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