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________________ धन्य-चरित्र/93 रूप से उत्पन्न हुआ। कहा भी है विचित्रा ही अध्यवसानां गतिः, शतशो वैरयुक्तो वैरी यद् दुःखं न ददाति तद् विषयो ददाति। अध्यवसायों की गति विचित्र है। सैकड़ों वैर से युक्त वैरी भी जो दुःख नहीं देता, वह दुःख विषय देते हैं। क्योंकि विषयाणां विषाणां च, दृश्यते महदन्तरम् । उपभुक्तं विषं हन्ति, विषयाः स्मरणादपि।। विषयों में और विष में महान अन्तर दिखाई देता है। विष तो खाने के बाद हनन करता है, पर विषय तो स्मरण-मात्र से ही हनन करते हैं। उधर सुनन्दा ने सखी-वृन्द के जाने के बाद सुरत-क्रिया से च्युत आभूषणों को ढूंढा, तो कितने तो प्राप्त हुए और कितने ही प्राप्त नहीं हुए। तब उसने सोचा-"टूट गये हैं" यह जानकर प्रिय ले गये होंगे। ठीक करवाकर भेज देंगे। ___ पुनः विचार किया-"सारे भूषण क्यों नहीं ग्रहण किये?" सखी ने कहा-"सखी-वृन्द के आगमन से संभ्रान्त-चित्त हो जाने से जो हाथ में आया, वही लेकर चले गये। कल उसकी खबर लेंगे।" इस प्रकार बातें करते हुए वे दोनों सो गयीं। प्रभात होने पर सभी लोग व राजा अपने-अपने घर लौट आये। रूपसेन के पिता भी परिवार सहित घर आ गये। घर के दरवाजे पर ताला लगा हुआ देखकर अनुमान लगाया-"किसी आवश्यक कार्य या देह-चिंता के लिए गया होगा।" दो घड़ी द्वार पर खड़े रहे, फिर भी नहीं आया, तो कुछ-कुछ चिंतित होते हुए सभी परिचित स्थानों पर भाई आदि तथा अन्य भी सम्बन्धी गवेषणा के लिए दौड़े। पर कहीं भी प्राप्त नहीं हुआ। पिता, भाई आदि सभी सम्बन्धी अत्यन्त दुःख व चिंता करते हुए समस्त नगर में, उपवन आदि में उसे ढूंढ़ने के लिए घूम-घूम कर थक गये, पर कहीं भी लेश-मात्र भी वार्ता नहीं सुनी। तब रूपसेन के पिता लोहार के पास से ताला खुलवाकर शोकाकुल पत्नी आदि परिवार को घर पर छोड़कर रूपसेन की चिंता से व्याकुल होते हुए राजद्वार पर गये। दीर्घ निःश्वासों और अश्रुओं को छोड़ते हुए राजा को नमस्कार करके खड़े रह गये। राजा ने भी उसे उस हालत में देखकर पूछा-'हे इभ्यवर! तुम्हे ऐसा कौन-सा असह्य दुःख उत्पन्न हुआ है, धीरज धरकर निवेदन करो, जिससे कि
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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