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________________ आचार्य श्री सोमप्रभसूरि शतार्थी (तयालीसवें पट्टधर) महामंत्री जिनदेव के पौत्र सोमदेव ने आ० श्री विजयसिंहसूरि के पास दीक्षा ली और मुनि सोमप्रभ बने । आचार्य श्री ने इन्हें स्व-परशास्त्रों का गहरा अध्ययन करवाया और आचार्य पद प्रदान कर अपने पट्ट पर प्रतिष्ठित किया । आचार्य श्री सोमप्रभसूरि प्रकाण्ड विद्वान्, शीघ्र कवि और सफल उपदेशक थे । इनसे वि.सं. १२३८ में प्रतिष्ठित 'मातृकाचतुर्विंशति पट्ट' आज भी शंखेश्वर तीर्थ में पूजा जाता है । ये समर्थ ग्रन्थकार भी थे । इनकी ग्रन्थरचना निम्न प्रकार है :(१) सुमतिनाहचरियं, (२) सिन्दूर-प्रकरण अपरनाम सोमशतक और सूक्तमुक्तावली, जिस पर अनेक विद्वानों ने टीकाएँ एवं पद्यानुवाद रचा है, (३) श्रृङ्गारवैराग्यतरङ्गिणी, (४) शतार्थ काव्य-स्वयं ने एक श्लोक रचकर उसके एक सौ अर्थ किये, इसीसे आपको शतार्थी की ख्याति प्राप्त हुई और (५) कुमारपालपडि बोहो । इनके लघु-गुरुभ्राता आ० श्री मणिरत्नसूरि थे, जो अत्यन्त विनयी और संघ में सभी को प्रिय थे । इनके शिष्य आ० श्री जगच्चन्द्रसूरि हुए, जिनसे आघाटपुर (आयड) में 'वडगच्छ' 'तपागच्छ' के रूप में प्रसिद्ध हुआ । मेवाड के राजा और शीशोदीया ओसवाल वंश मेवाड के राजा भर्तृभट्ट, अल्लट, कर्दम वगैरह जैनधर्म के अनुरागी एवं जैनाचार्यों के उपासक थे। इनकी परम्परा में राजा रणसिंह (वि.सं. १२११) हुआ, जिसके 'संग्रामसिंह' और 'समरसिंह' भी नाम थे । रणसिंह के करणसिंह पुत्र और धीरसिंह पौत्र था। राणा धीरसिंह ने वि.सं. १२२६ के आसपास जैनधर्म स्वीकार किया और इसीसे 'शीशोदीया ओसवाल वंश' चला । कालक्रम से इसके वंशज भूला (जि. सिरोही) से अहमदाबाद जा बसे, जहाँ आज भी नगरसेठ के पद से प्रसिद्ध है । (८२)
SR No.022704
Book TitleJain Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandrasuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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