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दूसरे आचार्य श्री भद्रबाहुस्वामी हुए, जिन्होंने ४५ वर्ष की वय में दीक्षा ली, १७ वर्ष सामान्य व्रतपर्याय पाला और १४ वर्षो तक युगप्रधान पद पर रहे । जिनशासन का महान् उपकारकर वी.नि.सं. २२२ में कुमारगिरि पर १५ दिन का अनशन कर स्वर्गवासी हुए ।
इन्होंने 'महाप्राण' नाम के ध्यान को सिद्ध किया था । चतुर्विध संघ की रक्षा के लिए 'उवसग्गहरं' सूत्र को रचा । अनेक आगमों पर संक्षिप्त व्याख्या रूप निर्युक्ति शास्त्रों की रचना की । श्री स्थूलभद्रस्वामी इन्हीं के पास चौदह पूर्व पढे । इन्हीं की प्रमुखता में पहली आगमवाचना पाटलीपुत्र में हुई थी ।
तीसरे निह्नव अव्यक्तवादी
इन्हीं के काल में श्री आषाढाचार्य के शिष्य वी.नि.सं. २१४ में अव्यक्तवादी तीसरे निह्वव हुए, जिनको राजगृही नगरी में मौर्यवंशी बलभद्र राजा ने पुनः प्रतिबोधित किया ।
आचार्य श्री संभूतविजय और आचार्य श्री भद्रबाहुस्वामी के पट्ट पर श्री स्थूलभद्रस्वामी हुए ।
कामविजेता श्री स्थूलभद्रस्वामी (सातवें पट्टधर)
पाटलिपुत्र में शकटाल मन्त्री के पुत्र श्रीस्थूलभद्र बारह वर्ष तक राजवेश्या 'कोशा' के घर रहे । इनकी ३० वर्ष की उम्र थी तब वररुचि ब्राह्मण के प्रपंच से शकटाल मन्त्री की मृत्यु होने पर राजा नन्द ने इन्हें बुलाकर मन्त्री पद स्वीकार करने को कहा । किन्तु इन्होंने इस तरह अपने पिता की अकाल मृत्यु से विरक्त होकर दीक्षा ले ली ।
पश्चात् श्रीसंभूतविजय के पास विधिपूर्वक व्रतों को स्वीकारा । कुछ समय के बाद गुरु के आदेश से कोशा के घर वर्षा - चातुर्मास रहे । वहाँ धर्मोपदेश देकर कोशा को श्राविका बनाया ।
इसीसे ये कामविजेता कहलाये । ब्रह्मचर्य पालन के आदर्श रूप में इनका नाम ८४ चौबीसी तक अमर रहेगा ।
इनके छोटे भाई श्रीयक मन्त्री ने और यक्षा वगैरह सात बहिनों ने भी दीक्षा ली
थी ।
श्री स्थूलभद्रस्वामी २४ वर्ष तक व्रत - पर्याय में और ४५ वर्ष तक युगप्रधान पद पर रहकर ९९ वर्ष की वय में वी. नि. सं. २६७ में स्वर्गवासी हुए ।
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