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आचार्य श्री विजयरत्नसूरि (देवसूरिगच्छ के ६३ वें पट्टधर)
आ० श्री विजयप्रभसूरि के पट्टधर आ० श्री विजयरत्नसूरि हुए। इनका जन्म वि.सं. १७११, दीक्षा वि.सं. १७१७ में माता और दो भाइयों की साथ और आचार्यपद वि.सं. १७३२ में हुआ ।
आपने वागड के राव खुमाणसिंह की राजसभा में वाद में विजय पाई थी । वि.सं. १७६४ में मेवाड के राणा अमरसिंह ने आपके उपदेश से पर्युषण पर्व में सदा के लिए अमारि पवर्तन का फरमान जाहिर किया था । जोधपुर नरेश अजित सिंह और मेडता का राणा संग्रामसिंह भी आपके उपदेश से प्रभावित थे । इसी प्रकार अनेक शांहों और सूबेदारों पर भी आपका प्रभाव था । वि.सं. १७७३ में आप स्वर्गवासी हुए ।
आचार्य श्री विजयक्षमासूरि (देवसूरिंगच्छ के ६४ वें पट्टधर )
आ० श्री विजयरत्नसूरि के पट्ट पर आ० श्री विजयक्षमासूरि आये । इनका जन्म वि.सं. १७३२, दीक्षा वि.सं. १७३९, वि.सं. १७७३ में आचार्यपद और स्वर्गवास वि.सं. १७८४ में हुआ । आपने कल्पसूत्र की सुबोधिका टीका का गुजराती भाषान्तर किया जो 'खेमशाही' के नाम से प्रसिद्ध है ।
आचार्य श्री विजयमानसूरि
( आनन्दसूरिगच्छ के तिरसठवें पट्टधर)
आ० श्री विजयराजसूरि के पट्टधर आ० श्री विजयमानसूरि का जन्म वि.सं. १७०७, दीक्षा वि.सं. १७१९ बडे भाई के साथ, वि.सं. १७३१ में उपाध्यायपद, आचार्यपद वि.सं. १७३६ और स्वर्गवास वि.सं. १७७० में हुआ ।
आपने 'धर्मसंग्रह' ग्रन्थ की रचना की जिसका संशोधन महोपा० श्री यशोविजय वाचक ने किया ।
आपके पट्टधर आ० श्री विजयऋद्धिसूरि के दूसरे पट्टधर आ० श्री विजयप्रताप सूरि के पट्टधर आ० श्री विजयोदयसूरि के शिष्य पं० रामविजय ने के माधवपूना राव पेशवा की राजसभा में स्थानकवासियों को हराकर जिनप्रतिमा की स्थापना की थी । यह प्रसंग उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध का है ।
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