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वि.सं. १६५२ में हुआ ।
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आपने अनेक स्थानों में हजारों जिनबिम्बों की प्रतिष्ठाएँ कीं । आपके उपदेश से बादशाह अकबर ने अपने १२ सूबो में प्रतिवर्ष छह महीने अमारि-प्रवर्तन करवाया, “जजीया” कर बन्द कर दिया, अनेक बंदीजनों को और पशु-पक्षियों को मुक्त कर दिया, डाबर सरोवर पर शिकार एवं मछली पकडने को निषेध किया, निःसंतान मृतक का धन लेना बंद किया और स्वयं जो हमेशा पांच सौ गोरैया चकला की जीभ का नाश्ता करता था उसे बंद किया ।
आचार्य श्री के ज्ञान और संयम से आवर्जित होकर अपनी धर्मसभा 'दीन-ए इलाही' में इन्हें प्रथम कक्षा का सभ्य पद प्रदान किया था । इतना ही नहीं, आचार्य श्री को 'जगद्गुरु' के खिताब (पदवी) से सन्मानित किया था और एक बडा ग्रन्थभण्डार भेट किया था ।
लुंका मत के श्रीपूज्य मेघजी ऋषी आदि अनेक मुनियों ने आपके पास दीक्षा ली ।
आचार्य श्री राजविजयसूरि
आ० श्री राजविजयसूरि का जन्म अमदाबाद में वि.सं. १५५४, दीक्षा वि.सं. १५७१ आचार्यपद वि.सं. १५८४ और स्वर्गवास वि.सं. १६२४ में हुआ । वि.सं. १५८२ के क्रियोद्धार में आपने आ० श्री आनन्दविमलसूरि को पूरा साथ दिया
था ।
आप प्रकाण्ड विद्वान् और वादी थे । आपके समय में एक दिगम्बर भट्टारक जीआजी उज्जयिनों में श्रावकों को अपने मत में खींच रहा था । उज्जैन के श्रावक मन्त्री ताराचन्द की प्रार्थना से और गच्छनायक आ० श्री विजयदानसूरि की आज्ञा से ७०० साधुओं को लेकर आपने मालवा की तरफ विहार किया । रास्ते में स्थान-स्थान पर दिगंबर मत का खंडन करते हुए और आपने पीछे साधुओं को छोडते हुए आपने ३०० साधुओं के साथ उज्जयिनी में बादशाही सन्मानपूर्वक प्रवेश किया । इससे दिगंबर भट्टारक के मन पर बडा प्रभाव पडा और अन्त में बिना वाद किये ही उज्जयिनी छोडकर चला गया । इस तरह आपने मालवा में विचर कर श्वेतांबर संघ को धर्म में स्थिर किया ।
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