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(६) यदि ईश्वर जीवों को उनके शभ-अशुभ कर्मो के अनुसार ही सुखी या दु:खी बनाता है, तब तो ईश्वर स्वतंत्र रीति से जीवों को सुखी दुःखी बनाने में असमर्थ सिद्ध हुआ।
इस स्थिति में तो यही मानना उचित है कि जीवों को शुभ-अशुभ कर्म ही उन्हें सुखी-दु:खी बनाते हैं । बीच में निकम्मे ईश्वर की कोई आवश्यकता नहीं
(७) यदि कोई कहे कि ईश्वर का स्वभाव ही जगत्-सर्जन का है, इसमें तर्क अर्थात् दलील नहीं करनी चाहिए, तो 'ईश्वर जगत् का सर्जक है' यह बात तर्क की कसौटी पर उड गई।
(८) जगत्-सर्जक ईश्वर को यदि अनादि मानते हो तो पूरे जगत् को ही अनादि मान लेने से ऊपर कहे दोषों को अवकाश नहीं रहेगा और ईश्वर में लघुता भी नहीं आएगी।
(९) जगत् के समस्त चराचर पदार्थों के ज्ञान को ही यदि ईश्वर का जगत्सर्जन और इसे ही विश्व-व्यापकता मानते हो तो यह हमें भी मान्य है । सर्वज्ञ परमात्माओं को हम भी मानते हैं, जो (१) छत्र-चामरादि आठ प्रातिहार्यो से युक्त अरिहंत प्रभु साकार है और (२) सिद्ध भगवंत निराकार हैं।
सारांश-जगत् अनादि है । न किसीने इसे बनाया है, न कोई इसका विनाश करता है और न कोई इसका संचालन या रक्षण करता है । किन्तु यह जगत् स्वयंभू है और स्वयं संचालित है।
धर्म, धर्मी और मोक्ष अनादि है ऐसे अनादि जगत् में धर्म-शासन के संस्थापक तीर्थंकर परमात्मा, धर्मोपदेश, धर्म के पालक साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ और धर्म का चरम फल मोक्ष-प्राप्ति भी अनादि काल से है । महाविदेह क्षेत्र में सदा तीर्थंकर परमात्मा और उनका शासन रहता है । अतः जगत् की तरह धर्म, धर्मी और मोक्ष भी शाश्वत है।
भरत आदि कर्मभूमिक क्षेत्रों में भी भूतकाल में अनन्त चोबीसियों में अनन्त तीर्थंकर भगवन्त हो गये है और भविष्य में भी होने वाले हैं । इस अवसर्पिणीकाल में हमारे भरत क्षेत्र में जो चौबीसी हुई उसके प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव हुए और अन्तिम तीर्थंकर श्री महावीरस्वामी हुए । इसी तरह भरत महाराजा आदि १२ चक्रवर्ती, ९ वासुदेव, ९ प्रतिवासुदेव और ९ बलदेव हुए। इन महापुरुषों का जीवन