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________________ श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र वैराग्य और संयम "निशा विरामे परिचिन्तयामि, गेहे प्रज्वलिते किमहं स्वपामि" यह श्लोक याद आया । घर जल रहा है, मैं किसलिए सो रहा हूँ? मैं संसार की वासनाओं में फंसकर सचमुच ही अमूल्य मानव भव के कीमती क्षण व्यर्थ गवाँ रहा हूँ। क्या संसार में रहकर इससे बढ़कर और भी सुख मिल सकता है ? जिसकी आशा से मैं मृगजल को देख मृग के समान दौड़धूप कर रहा हूँ ? मैं क्यों नहीं इस तुच्छ इन्द्रियसुख लालसा के बन्धन को तोड़कर आत्मसाधना के मार्ग पर चढ़ जाता ? मुझमें इतनी कमजोरी? अहा ! मैं कितना प्रमादी हूँ! पूर्वभव में किये हुए सुकृत और दुष्कृत का अनुभव करने पर भी उस सच्चे सुख के मार्ग को न स्वीकारकर विनश्वर इन्द्रिय विषय सुख में लुब्ध हो रहा हूँ ? बस अब ऐसा न होगा । अब मुझे यह संसार डरावना लगता है । पिता ! प्यारे पूज्य पिता ! तुम धन्य हो ! इस तृष्णामय संसार को त्यागकर परम शान्ति के मार्ग में गमनकर अपनी आत्मा का कल्याण करनेवाले पिता ! तुम धन्य हो! हे पूज्यनीय वीरधवल राजर्षि ! आप धन्य हैं ! मैं भी अब उसी मार्ग का आश्रय लूँगा । मेरी निद्राभंग हो गयी । हे तेजोमय त्यागमूर्ति ! तुमने दर्शन देकर मुझे कीचड़ में से खींच लिया। पूर्वोक्त विरक्त विचारों में ही महाबल की रात बीत गयी । प्रातःकाल होने पर सुखशय्या से उठकर आवश्यकादि नित्यक्रम से निपटकर वैराग्यरस पूर्ण हृदयवान वह राजसभा में आया। मनुष्य की प्रबल इच्छाशक्ति भी जादू का काम करती है । थोड़ी ही देर के बाद राजसभा में एक वनमाली ने आकर विनम्रभाव से कहा – महाराज ! सरकारी बगीचे में ज्ञानदिवाकर और तेजोमय त्यागमूर्ति कोई एक महात्मा पुरुष पधारे हैं । यह सुनकर महाबल के हर्ष का पार न रहा। अपने मनोभाव को सिद्ध करनेवाले महापुरुष का समागम सुनकर मनोद्यान विकसीत हो उठा। "सचमुच ही मैं पुण्यवान् हूँ" मेरे विचार के साथ ही ज्ञानीगुरु महाराज का समागम हो गया। बस यही मेरे समुन्नत भविष्य की निशानी है । इच्छा होते ही साधक को उत्तर साधक सहायक की प्राप्ति होना 229
SR No.022652
Book TitleMahabal Malayasundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay, Jayanandsuri
PublisherEk Sadgruhastha
Publication Year
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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