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________________ श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र पूर्वभव वृत्तान्त यक्ष की पूजाकर यात्रा सफल मानकर सकल परिवार सहित प्रियमित्र और प्रियसुन्दरी एक स्वच्छस्थान में भोजन करने के लिए बैठे । इस समय प्रियसुंदरी को प्रसन्न देख जैन धर्म में विशेष प्रेम रखनेवाली एक दासी ने अपने मालिक और मालकिन से नम्रता से कहा - "आप लोगों ने उस क्षमाशील महाव्रत धारक और त्याग की मूर्ति महामुनि को कष्ट देकर" तिरस्कार और कदर्थना करके महान् पाप उपार्जन किया है । संसार से विरक्त हुए महात्मा की हँसी और मजाक करनेवाला भी इस जन्म और अगले जन्म में अनेक दुःखों का अनुभव करता है । जिसमें आप लोगों ने तो उसका बहुत सा तिरस्कारकर, उसे पत्थरों से मारकर! अनेक प्रकार के क्रोध पूर्ण वचनों से कदर्थनाकर उसका रजोहरण भी छीन लिया है । इससे आप लोगों ने बड़ा भयंकर दुःख भोगने का कर्म उपार्जन कर लिया । आपको शान्तचित्त से इस पर स्वयं विचार करना चाहिए । ऐसे महात्मा अनेक प्राणियों का उद्धार करनेवाले होने के कारण संसार के प्राणियों का आधारभूत होते हैं । संसार के विषयों में तपे हुए मनुष्य समाज के लिए ऐसे महापुरुषों का समागम मेघ के समान शान्ति देनेवाला होता है । ऐसे ज्ञानीसाधु रातदिन अपने और पराये जीवों के हित चिन्तन में ही लीन रहते है। इसलिए वैराग्य और मंगलमय मूर्ति महात्मा को दुःख देना अपने सुख को नाश करने के समान है। दासी के उपदेशपूर्ण वचनों को सुनकर उन दोनों के हृदय में इतना पश्चात्ताप हो उठा कि वे अपने किये हुए दुष्कर्मजन्य पाप के भय से थर - थर काँपने लगे । दुर्गति के डर से वे दीन मन होकर अत्यन्त पश्चात्ताप करते हुए अपने कृत्य की निन्दा करने लगे । दुर्गति से बचानेवाला उपदेश देनेवाली उस दासी की बुद्धि की उन्होंने बहुत ही प्रशंसा की । उसे अनेक धन्यवाद दिये और स्वयं जैनधर्म समझने की जिज्ञासा प्रकट की। मुनि का रजोहरण वापिस देने और अपने दुष्कृत्यों की क्षमा याचना करने के आशय से वे शीघ्र ही यक्षमन्दिर से वापिस लौटे । वह मुनि भी अभी तक ध्यान मुद्रा में उसी जगह खड़ा था । उसका रजोहरण छिन जाने पर उसने यह 218
SR No.022652
Book TitleMahabal Malayasundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay, Jayanandsuri
PublisherEk Sadgruhastha
Publication Year
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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