________________
श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
निर्वासित जीवन
इस समय उसे बाह्य और अभ्यंतर कितना दुःख हुआ होगा यह तो कोई ज्ञानी या वह स्वयं ही जानती है । ऐसी दुःखद स्थिति में भी पुत्र प्राप्ति ने उसे कुछ आश्वासन दिया । बच्चे को साफसूफ कर गोद में बैठाकर माता प्रेमभरी दृष्टि से उसके मुख तरफ एकटक देखने लगी । इस समय वह अपने ऊपर पड़े हुए तमाम दुःखों को भूल गयी । उस पुत्र की मुख मुद्रा सूर्य बिंब के समान तेजस्वी और सुंदर देखकर माता के नेत्रों से हर्ष के अश्रु बहने लगे । वह अपनी स्थिति को यादकर पुत्र के सन्मुख देख कहने लगी- हे पुत्र! आज हजारों मनोरथों के साथ तेरा जन्म हुआ है, परंतु तेरी हतभाग्य माता ऐसे भयंकर अरण्य में तेरा जन्मोत्सव कर सकती है? यदि तेरा जन्म घर पर हुआ होता या तेरे पिता के पास होता तो आज के दिन राज्यभर में महोत्सव मनाया जाता । घर - घर मंगल गाये जाते । बेटा! मुझ कमनसीब स्त्री के तमाम मनोरथ मन में ही विलीन हो गये । यों बोलते हुए फिर से उसका हृदय भर आया और वह फूट - फूट कर रोने लगी। अरण्यवासी हिंसक पशुओं के भय से सावधान रहकर उसने बड़ी मुश्किल से रात बितायी ।
मनुष्य की दुःखित अवस्था में सुकुमार शारीरिक परिस्थिति भी कठोरता धारण कर लेती है, एवं अधिक समय तक रहनेवाला दुःख भी उसके हृदय में घर कर लेता है । राज पुत्री होने के कारण धैर्य और साहस धारणकर वह वहां ! से पूर्व दिशा की ओर चल पड़ी। कुछ दूर जाने पर उसे एक नदी बहती हुई नजर आयी । नदी पर जाकर उसने अपनी तमाम अशुचि को दूर कर पास में रहे वृक्षों के नीचे पड़े हुए कुछ, पके हुए फल खाकर अपनी क्षुधाशांत की । नदी के किनारे पर वृक्षों की सघन घटा घिरी हुई थी; उन वृक्षों के एक निकुंज में रहकर मलयासुंदरी अपने पुत्र का पालन करते हुए अपने निर्वासित जीवन के दिन बिताने लगी ।
एक दिन बहुत से परिवार सहित बलसार नामक सार्थवाह ने उसी नदी के किनारे पर अपना पड़ाव डाला जहां दुर्दैव पीड़ित मलयासुंदरी अपने संकटपूर्ण समय को बिता रही थी । संध्या के समय बलसार दिशाफराकत के
158