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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
निर्वासित जीवन से समरभूमि में आया था परंतु उसका हृदय अपनी प्राणप्यारी मलया के पास ही रह गया था। अब वह मलयसुंदरी को शीघ्र जा मिलने की उत्सुकता से विलंब रहित प्रयाण से पृथ्वीस्थानपुर के समीप ही आ पहुंचा है । रास्ते में कई जगह उसे अपशकुन भी हुए, बांई आंख भी फड़की परंतु विजय की खुशी और प्रिया से मिलने की उत्सुकता में उसने उस ओर कुछ ध्यान ही न दिया । अब वे राजनगर में आ पहुंचे । राजसभा में आकर महाबल ने पिता के चरणों में नमस्कार कर विजय का समाचार सुनाया। पल्लीपति को जीतने का समाचार सुनकर राजा को बड़ा भारी हर्ष हुआ और उसने कुमार की प्रशंसा की । पिता की आज्ञा ले मलयासुंदरी से मिलने की उत्कंठा में कुमार अपने महल की तरफ चल पड़ा परंतु तुरंत ही रोककर महाराज शूरपाल ने उसका हाथ पकड़ एकांत में ले जाकर मलयासुंदरी के राक्षसी होने का तथा उसे दी हुई शिक्षा का सर्व वृत्तांत कह सुनाया। पिता के मुख से यह वृत्तांत सुनते ही दीर्घ निश्वास के साथ हाथ से हाथ घिसते हुए कुमार के मुख से एकदम चीत्कार निकल पड़ा । वह रुद्ध कंठ से बोला – हा! हा! पिताजी! आपने महान् अनर्थ कर डाला । उसके प्राणों के साथ आपने मेरे भी प्राण ले लिये । आपने मुझे और अपनी पुत्रवधूको शत्रु से भी बढ़कर असह्य दंड और अन्याय दिया है । मलयासुंदरी राक्षसी थी यह भ्रमणा आपको कहां से पैदा हुई? पिताजी! आपकी इतनी विचारशून्यता! आपकी दीर्घ दृष्टि कहां चली गयी? यदि आपको उसमें कोई दोष मालूम हुआ भी था तथापि मेरे आने तक तौ धैर्य रखना था। जिस छिन्न नासिका स्त्री के कहने से आपने मुझ पर यह अनर्थ ढ़ाया है उस कपट की खान कनकवती को मैं भलिभांति जानता हूं । पिताजी! आप उस धूर्त स्त्री के वचनों से सचमुच ही ठगे गये । आप मुझे जल्दी बतलाइए कि वह मेरी निष्कारण दुश्मन नाक कटी कहां पर है ? मैं उससे तमाम बातें पूर्वी तो सही! कुमार के इस प्रकार के दुःख, शोक
और तिरस्कारपूर्ण वचनों से राजा शूरपाल का मुखमंडल मुरझा गया । उसने नीचे देखते हुए कहा - 'बेटा! इस घटना के बाद हमने उसकी सब जगह तलाश की परंतु वह स्त्री कहीं पर भी देखने में न आयी । अगर सच ही यह उसका प्रपंच होगा तो शायद वह उसी रात को कहीं अन्यत्र भाग गयी होगी।
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