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श्रीउत्तराध्ययनसूत्र
एगन्तरत्त रुइरेमि फासे,
अतालिसे से कुणई पओसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले,
__ न लिप्पई तेण मुणी विरागो ।।७८॥ फासाणुगासाणुगए य जीवे,
चराचरे हिंसइऽणेगरूवे ।। चित्तहि ते परितावेइ बाले,
पीलेहि अत्तगुरू किलिटे ॥ ७९ ॥ फासावारण परिग्गहेण,
उपायणे रक्खणसन्निोगे। वए विनोगे य कहं सुहं से,
संभोगकाले य अतित्तलाभे ॥८० ॥ फासे अतित्त य परिग्गहम्मि,
सातोवसत्तो न उवेइ तुहिँ । अतुट्टिदोलेरए दुही परस्स.
लोभाविले प्राययई अदत्तं ।। ८१॥ तराहाभिभूयस्त अदत्तहारिणो,
फासे अतित्तस्स परिग्गहे य । मायामुसं वड्डइ लोभदं सा,
तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई ले ॥२॥ मोसस्स पच्छा य पुरस्थो य.
पोगकाले य दुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययन्तो,
फासे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो॥८३॥ फासाणुरत्तस्स नरस्स एवं,
कत्तो सुहं होज कयाइ किंचि?