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जो तिन्नि जीवसहिया दंडा मणवयणकाय गुत्तीओ / नाणंकुसेण गिण्हइ सो मरणे होइ कयजोगो ॥ १३४ ॥
जो पुरुष जीव संबंधी मन वचन काया रूपी दंडको ज्ञानांकुश रूपी तीन गुप्ति से निग्रह करता है । वह मरण समय में कृतयोगी यानि अप्रमत्त रहकर समाधि में रह सकता है ।
जो चत्तारि कसाए घोरे ससरीरसंभवे निच्चं ।
जिणगरहिए निरूंभइ सो मरणे होइ कयजोगो ॥ १३५ ॥
जिनेश्वरों से गर्हित स्वशरीर [ या संसार] में उत्पन्न भयंकर क्रोधादि चार कषायों का जो नित्य निग्रह करता है । वह मरण समय में समतायोग को सिद्ध करता है । [ क्रोधादि के प्रतिस्पद्ध गुणों द्वारा ]
जो पंचइंदियाइं सन्नाणी विसयसंपलित्ताइं । नाणंकुसेण गिves सो मरणे होइ कयजोगो ॥ १३६ ॥
जो ज्ञानी मुनि विषयों में अत्यंत आसक्त इंद्रियों को ज्ञान रूप अंकुश से निग्रह करता है । वह मरण समयमें समाधि का साधक बनता है ।
छज्जीव निकायहिओ सत्तभयद्वाणविरहिओ साहू | एगतमद्दवमओ सो मरणे होइ कयजोगो ॥ १३७ ॥
छजीव निकाय का हितस्वी, इहलोकादि सातोंभयों से रहित अत्यन्त मृदु नम्र स्वभाव वाला मुनि नित्य सहज समता का अनुभव करता हुआ मरण समय में परम समाधि का साधक होता है ।
जेण जिया अट्ठमया, गुत्तो वि हु नवहिं बंभगुत्तीहिं । आउत्तो दसकज्जे, सो मरणे होइ कयजोगो ॥ १३८ ॥
जिस ने आठ मदोंको जीत लिए है, जो नव ब्रह्मचर्यकी गुप्ति से गुप्त है, जो दशयतिधर्म पालन में उद्यत है, वह मरण समय में अवश्य समता समाधि भाव प्राप्त करता है ।
आसायणाविरहिओ, आराहिंसु दुल्लहं मुक्खं । सुक्कज्झाणाभिमुहो, सो मरणे होइ कयजोगो ॥ १३९ ॥
जो अत्यन्त दुर्लभ ऐसे मोक्षमार्गकी आराधना का इच्छुक, देव गुरू आदि की आशातना का वर्जक और धर्मध्यान का अभ्यासी, शुक्लध्यान सन्मुख हो पूर्वाचार्य रचित 'सिरिचंदावेज्झय पइण्णयं'
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