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खपाता तो है ही । परंतु स्वाध्याय से अनेक भवोंके संचित कर्म क्षणभर में खपा देता है । नाश कर देता है । सतिरिय सुरासुरनरो सकिंनर महोरगी सगंधब्बो । । सव्वो छउमत्थजणो पडिपुच्छइ केवलिं लोए ॥ ९२ ॥
तिर्यंच, सुर, असुर, मानव, किन्नर, महोरग, गंधर्व सहित सभी छद्मस्थ जीवों के लिए जिज्ञासा के समाधान के लिए एक मात्र केवल ज्ञानी है | उनकी अनुपस्थितिमें विशिष्ट श्रुतज्ञानी है। .. इक्कंमि वि जम्मि पए संवेगं बच्चइ नरो अभिक्खं । तं तस्स होइ नाणं जेण विरागणतणमुवेइ ॥ ९३ ॥
जो कोई एक या दो पद के श्रवण से मनुष्य सतत वैराग्य को प्राप्त करता है तो वे पद भी सम्यग्ज्ञान है । क्योंकि जिससे वैराग्य की प्राप्ति हो वही सत्य ज्ञान है। इक्कंमि वि जंमि पए संवेगं वीयरायमग्गंमि । वच्चइ नरो अभिक्खं तं मरणंत ण मुत्तव्वं ॥ ९४ ॥
वीतराग परमात्माके मार्ग में जिस एक भी पद से मनुष्य ने तीव्र वैराग्य पाया हो उस पद को मरणांत तक भी नहीं छोड़ना चाहिए । न भूलना चाहिए। इक्कंमि वि जंमि पए संवेगं कुणइ वीयरायमए । सो तेण मोहजालं खवेइ अज्झप्पजोगेहिं ॥ ९५ ॥
जिनशासन के जिस किसी एक पद से संवेग प्राप्त होता है, उस एक के आलंबन से अनुक्रम से अध्यात्म योग की आराधना द्वारा विशिष्ट धर्म शुक्ल ध्यान से समग्र मोहजाल को भेद देता है। न हु मरणंमि उवग्गे सक्को बारसविहो सुयक्खंधो । सव्वो अणुचिंतेउं धणियपि समत्थचित्तेण ॥ ९६ ॥ : मृत्यु के समय समग्र द्वादशांगी का चिंतन मनन होना यह अत्यन्त समर्थ चित्तवाले मुनि से भी शक्य नहीं है । तम्हा इक्कंपि पयं, चिंतंतो तम्मि देसकालंमि । आराहणोवउत्तो जिणेहिं आराहगोमणिओ ॥ १७ ॥
पूर्वाचार्य रचित 'सिरिचंदावेज्झय पइण्णयं'
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